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रविवार, 20 अप्रैल 2025

छत्रपति शिवाजी महाराज का जीवन

अप्रैल 20, 2025 0

 छत्रपति शिवाजी महाराज: एक महान योद्धा और                            राष्ट्र निर्माता

1. प्रस्तावना

छत्रपति शिवाजी महाराज का नाम भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है। वे एक महान योद्धा, दूरदर्शी नेता, और महान राष्ट्र निर्माता थे। उनका जीवन वीरता, रणनीतिक कौशल, और समर्पण से भरा हुआ था। 1630 में जन्मे शिवाजी महाराज ने भारतीय उपमहाद्वीप में एक नया राजनीतिक और सामाजिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उनके संघर्ष और विजयों ने न केवल महाराष्ट्र बल्कि समूचे भारत को स्वतंत्रता की दिशा में एक नया मार्ग दिखाया।

2. शिवाजी का जन्म और प्रारंभिक जीवन

छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी 1630 को पुणे जिले के शिवनेरी किले में हुआ था। वे शाहजी भोसले और Jijabai के पुत्र थे। उनका नाम पहले "शिवाजी" रखा गया, और बाद में उन्हें "छत्रपति" का सम्मान मिला, जो उन्हें राज्य और प्रजा के प्रति अपनी निष्ठा और नेतृत्व के कारण मिला।

शिवाजी के बचपन में ही उनके माता-पिता ने उन्हें सैन्य और शासकीय मामलों की शिक्षा दी। उनकी मां जीजाबाई ने उन्हें रामायण, महाभारत और मराठा इतिहास की कहानियाँ सुनाई, जिससे उनका मानसिक और आध्यात्मिक विकास हुआ।

3. शिवाजी का सैन्य कौशल और राज्य निर्माण

शिवाजी महाराज का सैन्य कौशल और रणनीतिक दृष्टिकोण अद्वितीय था। उनके पास हर समस्या का समाधान खोजने की क्षमता थी। उन्होंने अपने प्रारंभिक जीवन में कई किलों पर कब्जा किया। 1645 में, जब वे 15 वर्ष के थे, उन्होंने पुणे के पास Torna किले पर कब्जा किया, जो उनके पहले सैन्य विजय का प्रतीक था। इसके बाद, उन्होंने कई किलों पर विजय प्राप्त की और धीरे-धीरे एक स्वतंत्र मराठा राज्य की नींव रखी।

शिवाजी ने अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत करने के लिए आधुनिक युद्ध पद्धतियों का उपयोग किया। उन्होंने घेराबंदी युद्ध, लघु सैन्य अभियान और गुप्त रणनीतियों का इस्तेमाल किया। इसके साथ ही, उन्होंने एक सशक्त नौसेना भी बनाई, जिससे वे समुद्र के रास्ते से भी अपने राज्य को सुरक्षित रख सके।

4. राजनीतिक दृष्टिकोण और प्रशासन

शिवाजी के प्रशासनिक दृष्टिकोण में कई महत्वपूर्ण पहलुओं थे। उन्होंने अपने राज्य में न्याय, समानता और धार्मिक सहिष्णुता की नींव रखी। उनका आदर्श शासन "सर्वजन हिताय" (सबके लिए कल्याण) था। शिवाजी ने अपने राज्य में एक मजबूत और सुसंगत प्रशासन प्रणाली स्थापित की। उन्होंने एक सशक्त मत्रीमंडल और प्रशासनिक प्रणाली बनाई, जिसमें राजस्व, सुरक्षा, और जनता के कल्याण के लिए विशेष ध्यान दिया गया।

उनके द्वारा स्थापित "अदालतों" (कोर्ट्स) ने न्याय को सही और त्वरित तरीके से प्रदान किया। साथ ही, उन्होंने किसानों, व्यापारियों, और अन्य वर्गों के लिए कई कल्याणकारी योजनाएं बनाई। शिवाजी महाराज ने अपने शासन में राज्य के हर नागरिक को एक समान दर्जा दिया, बिना किसी जाति या धर्म के भेदभाव के। वे हमेशा धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर थे और इस बात का उदाहरण उनकी नीति में देखा जा सकता है, जिसमें उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों दोनों को समान अधिकार दिए।

5. आधुनिक युद्ध कौशल और नौसेना

शिवाजी महाराज के युद्ध कौशल को अद्वितीय माना जाता है। वे एक महान रणनीतिकार थे, और उन्होंने छापामार युद्धों (Guerrilla Warfare) की तकनीकों को अपनाया। ये युद्धकला की एक ऐसी शैली थी, जो छोटे और तेज हमलों पर आधारित थी। इस प्रकार की युद्धकला ने उन्हें शत्रु की बड़ी सेनाओं के खिलाफ भी जीत दिलाई।

शिवाजी ने एक मजबूत नौसेना भी तैयार की, जो समुद्र से राज्य की सुरक्षा करने के साथ-साथ व्यापार मार्गों की भी रक्षा करती थी। कोंकण तट पर अपनी नौसेना को स्थापित कर, उन्होंने समुद्र के रास्ते से आने वाले आक्रमणकारियों से अपनी रक्षा की।

6. संघर्ष और विजय

शिवाजी के जीवन में कई संघर्ष थे, जिनमें सबसे प्रमुख था उनकी मुठभेड़ दिल्ली के मुगलों और उनके शासक औरंगजेब से। 1660 में, औरंगजेब ने शिवाजी के खिलाफ आक्रमण की योजना बनाई। लेकिन शिवाजी ने अपनी रणनीति से औरंगजेब की सेना को कई बार हराया। सबसे प्रसिद्ध घटना 1666 की है, जब शिवाजी औरंगजेब की अदालत में गए थे और वहां से अपनी सूझबूझ से भाग निकले।

7. कावेरी नदी से लेकर जंजिरा किला तक

शिवाजी के साम्राज्य की सीमाएं केवल भूमि तक सीमित नहीं थीं, बल्कि समुद्र के किनारे भी उनकी पकड़ मजबूत थी। कावेरी नदी से लेकर जंजिरा किले तक उनका साम्राज्य फैला हुआ था। उनके द्वारा स्थापित नौसेना ने समुद्र के रास्ते से होने वाले हमलों का मुकाबला किया।

8. शिवाजी का राजमहल और किलों की संरचना

शिवाजी महाराज ने कई किलों का निर्माण किया और उनकी मराठा साम्राज्य में विशेष महत्व था। इनमें से कुछ किले जैसे रायगढ़, सिंधुदुर्ग, और पुरंदर किला आज भी महाराष्ट्र की धरोहर के रूप में प्रतिष्ठित हैं। शिवाजी ने इन किलों को न केवल युद्धकला के प्रतीक के रूप में बनाया, बल्कि इन्होंने अपने साम्राज्य की सुरक्षा भी सुनिश्चित की।

9. शिवाजी की मृत्यु और विरासत

छत्रपति शिवाजी महाराज का निधन 3 अप्रैल 1680 को हुआ। उनका निधन मराठा साम्राज्य के लिए एक बड़ी क्षति थी, लेकिन उनकी विरासत हमेशा जीवित रही। उनका राज्य उनकी मृत्यु के बाद भी बहुत समय तक समृद्ध रहा, और उनकी नीतियों और कार्यों ने मराठा साम्राज्य को समृद्धि की दिशा में मार्गदर्शन किया।

निष्कर्ष

छत्रपति शिवाजी महाराज केवल एक महान योद्धा नहीं थे, बल्कि वे एक दूरदर्शी नेता और शासक भी थे। उन्होंने अपने जीवन में जो कार्य किए, वे न केवल उनकी वीरता और साहस का प्रतीक हैं, बल्कि वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले चरण की नींव भी मानी जा सकती हैं। उनका संघर्ष, नेतृत्व और प्रशासन आज भी भारतीय राजनीति और समाज में महत्वपूर्ण हैं। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि स्वतंत्रता, न्याय, और समानता के लिए संघर्ष करना और अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान रहना, सबसे महत्वपूर्ण है।

इतिहास में उनका स्थान

छत्रपति शिवाजी महाराज का नाम भारतीय इतिहास में हमेशा उच्च सम्मान से लिया जाएगा। उनकी वीरता, साहस, और दूरदर्शिता उन्हें एक ऐतिहासिक महापुरुष के रूप में जीवित रखेगी, जो हमेशा हमारे दिलों में रहेंगे।

गौतम बुद्ध: अज्ञान से बोध तक की यात्रा

अप्रैल 20, 2025 0

गौतम बुद्ध (563 ई.पू. – 483 ई.पू.) : अज्ञान से बोध तक की यात्रा

1. राजकुमार सिद्धार्थ का जन्म

लगभग ढाई हजार साल पहले, नेपाल के लुंबिनी नामक स्थान पर शाक्य वंश के राजा शुद्धोधन और रानी माया देवी के यहाँ एक पुत्र का जन्म हुआ। उनका नाम रखा गया सिद्धार्थ। जन्म के समय ही ऋषियों ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक या तो महान सम्राट बनेगा या महान संन्यासी।राजा ने यह सुनकर सिद्धार्थ को महल में ही सुख-सुविधाओं से घेर कर रखा। उन्हें कभी संसार का दुःख देखने नहीं दिया गया। परंतु सत्य को अधिक समय तक छुपाया नहीं जा सकता।

2. चार दर्शन और जीवन की करवट

एक दिन सिद्धार्थ अपने सारथी चन्ना के साथ नगर भ्रमण पर निकले। वहाँ उन्होंने चार अद्भुत दृश्य देखे:

  • एक बूढ़ा व्यक्ति
    एक रोगी
    एक मृत शरीर
    और एक संन्यासी

इन दृश्यों ने उनके मन को झकझोर दिया। उन्हें पहली बार समझ में आया कि जीवन में जन्म, रोग, बुढ़ापा और मृत्यु अपरिहार्य हैं। यह सब देखकर उनका मन संसार की मोह-माया से विरक्त हो गया।

3. गृहत्याग – महाभिनिष्क्रमण


एक रात सिद्धार्थ ने अपने सोते हुए पुत्र राहुल और पत्नी यशोधरा को बिना जगाए देख लिया। उन्होंने घोड़े कंथक पर सवार होकर महल छोड़ दिया। इस त्याग को “महाभिनिष्क्रमण” कहा जाता है – यानी आत्मज्ञान की खोज में गृहत्याग।

4. ज्ञान की खोज

सिद्धार्थ ने वर्षों तक विभिन्न गुरुओं से साधना की, तप किया, ध्यान किया। उन्होंने आत्म-त्याग के चरम को छू लिया, यहाँ तक कि उन्होंने अन्न-जल तक त्याग दिया। शरीर अत्यंत दुर्बल हो गया, परंतु आत्मज्ञान नहीं मिला।

तभी उन्हें समझ में आया कि अतिवाद – चाहे सुख का हो या दुख का – मुक्ति नहीं देता। उन्होंने एक नया मार्ग चुना – मध्यम मार्ग

5. बोधगया में आत्मज्ञान

एक दिन वे गया के पास पीपल के पेड़ के नीचे ध्यानमग्न हो गए। उन्होंने संकल्प लिया: "जब तक परम सत्य न जान लूँ, तब तक इस आसन को नहीं छोड़ूँगा।"

कई दिन और रात बीते। अंततः, वैशाख पूर्णिमा की रात उन्हें बोध प्राप्त हुआ। वे अब सिद्धार्थ नहीं, बल्कि बुद्ध बन चुके थे – अर्थात् "जाग्रत"।

वह पेड़ आज "बोधिवृक्ष" कहलाता है और स्थान है – बोधगया, बिहार में।

6. प्रथम उपदेश – धर्मचक्र प्रवर्तन

ज्ञान प्राप्ति के बाद बुद्ध सबसे पहले वाराणसी के पास सारनाथ पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपने पुराने पाँच साथियों को पहला उपदेश दिया। यह उपदेश था – धर्मचक्र प्रवर्तन

उन्होंने समझाया कि जीवन में दुःख क्यों है, उसका कारण क्या है, उससे कैसे मुक्ति मिले – जिसे उन्होंने चार आर्य सत्य के रूप में बताया:

चार आर्य सत्य:

  1. दुःख – जीवन दुःख से भरा है
    दुःख का कारण – तृष्णा (इच्छा)
    दुःख की निवृत्ति – इच्छा का क्षय
    मार्ग – अष्टांगिक मार्ग

7. अष्टांगिक मार्ग – मुक्ति का रास्ता

बुद्ध ने बताया कि दुःख से मुक्ति पाने के लिए हमें आठ बातों का पालन करना चाहिए:

  1. सम्यक दृष्टि – सही समझ

  2. सम्यक संकल्प – सही सोच

  3. सम्यक वाणी – सत्य और मधुर वचन

  4. सम्यक कर्म – अहिंसक और नैतिक आचरण

  5. सम्यक आजीविका – धर्मयुक्त जीवन-यापन

  6. सम्यक प्रयास – सत्कर्म की चेष्टा

  7. सम्यक स्मृति – जागरूकता

  8. सम्यक समाधि – ध्यान और एकाग्रता

8. बुद्ध का करुणा और अहिंसा का संदेश

गौतम बुद्ध ने किसी भी ईश्वर या कर्मकांड की आवश्यकता नहीं बताई। उनका धर्म था – प्रेम, करुणा और विवेक।

उन्होंने सिखाया कि:

  • सच्चा धर्म वही है जो मनुष्य को मुक्त करे।

  • क्रोध, ईर्ष्या, लोभ – यही नरक हैं।

  • दूसरों के दुःख को समझना ही करुणा है।

9. संघ और धर्म का प्रचार

बुद्ध ने एक भिक्षु-संघ की स्थापना की। उनके अनुयायी गाँव-गाँव, देश-देश जाकर बुद्ध का सादा, लेकिन गहरा संदेश फैलाते गए। भारत ही नहीं, श्रीलंका, बर्मा, चीन, जापान, तिब्बत – सब जगह बुद्ध की वाणी गूंजी।

उनकी शिक्षा थी –
"अप्प दीपो भव" – "स्वयं दीपक बनो।"

10. महापरिनिर्वाण

80 वर्ष की आयु में 483 ईसा पूर्व, कुशीनगर (उत्तर प्रदेश) में बुद्ध ने अपने जीवन का अंतिम उपदेश दिया और कहा:

"संघारामा अनिच्चा" – "सभी घटक नश्वर हैं। सावधानी से जीवन जियो।"

फिर वे चुपचाप ध्यान में लीन हो गए और महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए।


🌟 निष्कर्ष

गौतम बुद्ध का जीवन किसी चमत्कार से कम नहीं था। एक राजकुमार जिसने संसार का वैभव त्याग कर सत्य की खोज की, और पूरी मानवता को अज्ञान से बोध की ओर ले गया।

उनकी शिक्षाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं – जब भी मन अशांत हो, जब भी जीवन का रास्ता न दिखे – बुद्ध की ओर देखना कभी व्यर्थ नहीं जाता।रचयिता हो। अपने दीपक बनो।"

      बुद्धं शरणं गच्छामिधम्मं शरणं गच्छामिसंघं शरणं गच्छामि का बहुत विशेष महत्व है। 

भगत सिंह: एक क्रांतिकारी आत्मा की अमर कहानी

अप्रैल 20, 2025 0

 भगत सिंह: क्रांति की मशाल और युवा चेतना का प्रतीक 1. एक साधारण गांव से असाधारण यात्रा

पंजाब के लायलपुर जिले (अब पाकिस्तान) के बंगा गांव में 28 सितंबर 1907 को जन्मे भगत सिंह, एक ऐसे परिवार से ताल्लुक रखते थे जिनकी रगों में देशभक्ति बहती थी। उनके पिता किशन सिंह और चाचा अजीत सिंह ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ पहले से ही सक्रिय थे। भगत सिंह ने बहुत कम उम्र में ही यह ठान लिया था कि वे अपने देश की स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन समर्पित करेंगे।

2. बाल्यावस्था में ही क्रांति की चिंगारी

13 साल की उम्र में जब जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ, तब भगत सिंह अमृतसर पहुंचे और वहां की खून से सनी ज़मीन देखी। यही घटना उनके अंदर एक सुलगती आग बना गई। उन्होंने किताबों और समाचार पत्रों के माध्यम से दुनिया की क्रांतिकारी आंदोलनों का अध्ययन शुरू किया।

3. महात्मा गांधी से मोहभंग और क्रांतिकारी राह

भगत सिंह पहले गांधीजी के असहयोग आंदोलन से प्रेरित थे, लेकिन जब चौरी-चौरा कांड के बाद गांधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया, तो उन्हें अहिंसा की नीति से मोहभंग हो गया। उन्हें समझ में आ गया कि भारत को स्वतंत्रता सिर्फ भाषणों से नहीं मिलेगी – इसके लिए संघर्ष और बलिदान आवश्यक है।


4. हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA)

भगत सिंह लाहौर आए और वहाँ 'नौजवान भारत सभा' नामक संगठन की स्थापना की। फिर उन्होंने चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व वाले 'HSRA' से जुड़कर अपने क्रांतिकारी अभियान की शुरुआत की। उनका उद्देश्य था ब्रिटिश सरकार की नींव हिला देना – ताकि आम जनता जागरूक हो सके।

5. लाला लाजपत राय की हत्या और सांडर्स कांड

जब साइमन कमीशन का विरोध करते समय ब्रिटिश पुलिस ने लाला लाजपत राय पर लाठीचार्ज किया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई, तब भगत सिंह के दिल में बदले की आग धधक उठी। उन्होंने अपने साथियों – राजगुरु और सुखदेव के साथ मिलकर लाहौर में पुलिस अधिकारी सांडर्स को गोली मार दी। यह ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ पहला बड़ा प्रहार था।

6. असेंबली में बम फेंकना – आवाज़ जो कभी न रुके

भगत सिंह ने 8 अप्रैल 1929 को बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर केंद्रीय असेंबली (दिल्ली) में बम फेंका – लेकिन यह बम किसी को नुकसान पहुँचाने के लिए नहीं था, बल्कि यह "सुनो हमारी आवाज़!" का प्रतीक था। उन्होंने वहां खड़े होकर नारे लगाए – "इंकलाब जिंदाबाद!" और खुद को गिरफ़्तार करा दिया।

7. जेल में संघर्ष और लेखन

जेल में भगत सिंह ने किताबें पढ़ना जारी रखा – खासकर समाजवाद, पूंजीवाद और क्रांति पर। उन्होंने ब्रिटिश जेल प्रशासन के खिलाफ भूख हड़ताल की, मांग की कि उन्हें राजनीतिक कैदी माना जाए। उनकी कलम भी तलवार से कम धारदार नहीं थी – उन्होंने कई लेख लिखे जिसमें उन्होंने ब्रिटिश अत्याचार और भारत की स्थिति पर सवाल उठाए।

8. फांसी का दिन – लेकिन विचार अमर हो गए

भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को ब्रिटिश सरकार ने 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी। लेकिन यह सिर्फ तीन युवाओं की मौत नहीं थी – यह विचारों की मशाल थी जो पूरे भारत में जल उठी। उनकी अंतिम इच्छा थी – "मुझे क्रांति की गोद में मरने दो।"

9. भगत सिंह की विरासत

आज भी भगत सिंह हर उस युवा के दिल में जीवित हैं जो अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाता है। उनकी विचारधारा, उनका साहस, और उनका जीवन, आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करता रहेगा। उन्होंने एक बार लिखा था – "मैं नास्तिक हूँ, क्योंकि मैं अपने कार्यों पर विश्वास करता हूँ, किसी चमत्कार पर नहीं।"

10. एक विचारधारा, जो कभी नहीं मरेगी

भगत सिंह सिर्फ एक क्रांतिकारी नहीं थे – वह एक दार्शनिक, एक लेखक और एक दूरदर्शी थे। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि सिर्फ आज़ादी ही लक्ष्य नहीं है, बल्कि एक ऐसा समाज भी चाहिए जहाँ शोषण, जातिवाद और गरीबी का अंत हो। उन्होंने एक नया भारत सपना देखा था – और अब वह सपना हमारी ज़िम्मेदारी है।

1. देश के लिए जीना और मरना सीखो

भगत सिंह ने बहुत छोटी उम्र में ही अपना जीवन देश के नाम कर दिया।
👉 प्रेरणा: सिर्फ अपने लिए नहीं, *समाज और देश के लिए भी सोचो।

महात्मा गांधी: एक सत्याग्रही का प्रेरणादायक संघर्ष

अप्रैल 20, 2025 0

1. प्रारंभिक जीवन

महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को पोरबंदर, गुजरात में हुआ। उनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गांधी था। गांधीजी का पालन-पोषण एक धार्मिक और अनुशासित परिवार में हुआ। उनके पिता करमचंद गांधी पोरबंदर के दीवान थे, और उनकी माता पुतलीबाई एक धार्मिक महिला थीं। गांधीजी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पोरबंदर और राजकोट में प्राप्त की, और बाद में इंग्लैंड से कानून की पढ़ाई की।

2. दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष

गांधीजी के जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ दक्षिण अफ्रीका में आया, जहां वे एक वकील के रूप में काम करने गए थे। वहां की जातिवाद और भारतीयों के साथ हो रहे भेदभाव ने उन्हें अचंभित कर दिया। उन्होंने "सत्याग्रह" नामक अहिंसात्मक प्रतिरोध का आंदोलन शुरू किया, जिससे भारतीयों को उनके अधिकार दिलाने में मदद मिली। दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी ने अपने जीवन के सिद्धांतों का पहला परीक्षण किया और अहिंसा के साथ अपने संघर्ष को मजबूत किया।



3. भारत में स्वतंत्रता संग्राम

महात्मा गांधी का भारत लौटने पर स्वागत किया गया, और उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। उनका दृष्टिकोण भिन्न था—उन्होंने हथियारों के बजाय अहिंसा और सत्य के मार्ग को अपनाया। गांधीजी ने 1915 में "सत्याग्रह" का पहला प्रयोग चंपारण (बिहार) में किया, जहां वे किसानों के अधिकारों के लिए लड़े। इसके बाद, गांधीजी ने "ख़ादी आंदोलन", "नमक सत्याग्रह" और "नमक सत्याग्रह" जैसी कई प्रसिद्ध आंदोलनों का नेतृत्व किया। गांधीजी का मानना था कि स्वतंत्रता केवल ब्रिटिश शासन से मुक्ति नहीं, बल्कि भारतीय समाज के अंदर की गंदगी और असमानताओं से भी मुक्ति है।

4. गांधीजी के सिद्धांत

गांधीजी के जीवन के सिद्धांत उनकी दृष्टि को स्पष्ट करते हैं। उनमें मुख्य थे:

  • अहिंसा: गांधीजी का विश्वास था कि हिंसा केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक और वाचिक भी होती है। उन्होंने हमेशा अहिंसा के मार्ग को प्राथमिकता दी।

  • सत्य: सत्य उनका सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत था। उनका मानना था कि सत्य हमेशा शांति की ओर ले जाता है।

  • स्वदेशी आंदोलन: गांधीजी ने भारतीय वस्त्रों का उपयोग बढ़ावा देने के लिए खादी का प्रचार किया और ब्रिटिश वस्त्रों का बहिष्कार किया।

  • सार्वभौमिक धर्म: उन्होंने सभी धर्मों का सम्मान किया और धर्म को मानवता से जोड़कर देखा।

5. असहमति और आलोचना

महात्मा गांधी का अहिंसा का सिद्धांत कुछ लोगों को अपील नहीं करता था, विशेष रूप से उन लोगों को जो अधिक उग्र और क्रांतिकारी आंदोलनों में विश्वास रखते थे। चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी गांधीजी की नीति के आलोचक थे। उन्हें लगता था कि अहिंसा के मार्ग से स्वतंत्रता जल्दी नहीं मिल सकती थी। लेकिन गांधीजी का दृढ़ विश्वास था कि अहिंसा अंततः विजयी होगी।

6. स्वतंत्रता संग्राम का अंत

महात्मा गांधी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व बलिदान किया। उनका नेतृत्व और उनके आंदोलनों ने भारतीय जनता को जागरूक किया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ एकजुट किया। 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ, और गांधीजी की मेहनत और संघर्ष का परिणाम सामने आया। हालांकि, विभाजन के समय देश में हुए दंगों ने गांधीजी को बहुत दुखी किया। उन्होंने अहिंसा के सिद्धांत को फैलाने का प्रयास किया, लेकिन देश में सांप्रदायिक हिंसा बढ़ती रही।

7. गांधीजी की मृत्यु

30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी को नाथूराम गोडसे ने गोली मार दी। उनकी मृत्यु ने भारत को गहरा शोक में डुबो दिया। गांधीजी की मृत्यु के बाद भी उनके सिद्धांत और विचार भारतीय समाज में जीवित रहे। आज भी उन्हें विश्वभर में सम्मान और श्रद्धा की नजरों से देखा जाता है।

8. गांधीजी की धरोहर

महात्मा गांधी ने जिस सत्य, अहिंसा, और आत्मनिर्भरता के सिद्धांतों को प्रस्तुत किया, वह न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का आधार बने, बल्कि पूरे विश्व में उनके विचारों को सम्मानित किया गया। उनके विचारों का प्रभाव महात्मा गांधी के जीवनकाल के बाद भी रहा और वह आज भी विश्वभर में आदर्श बने हुए हैं। उनकी सबसे बड़ी धरोहर उनका यह संदेश है कि सत्य और अहिंसा का पालन करके हम न केवल अपने समाज को सुधार सकते हैं, बल्कि वैश्विक शांति की दिशा में भी योगदान कर सकते हैं।

9. महात्मा गांधी का जीवन एक प्रेरणा है, जो हमें सत्य, अहिंसा और आत्मनिर्भरता के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। उन्होंने अहिंसा के माध्यम से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया और यह सिद्ध किया कि सच्चा बल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक और नैतिक ताकत में होता है। गांधीजी का विश्वास था कि असहमति का समाधान केवल संवाद और समझ के माध्यम से किया जा सकता है, न कि हिंसा से। उनका "स्वराज" और "स्वदेशी" आंदोलनों ने न केवल भारत को स्वतंत्रता दिलाई, बल्कि एक आत्मनिर्भर समाज की नींव भी रखी। उनके विचार आज भी पूरे विश्व में प्रासंगिक हैं।


यह निबंध महात्मा गांधी की जीवन यात्रा और उनके संघर्ष को दर्शाता है, साथ ही उनके आदर्शों और सिद्धांतों को भी उजागर करता है। उनके योगदान को शब्दों में बयां करना मुश्किल है, लेकिन उनका जीवन एक प्रेरणा है, जो हमें सिखाता है कि सच्ची स्वतंत्रता केवल बाहरी बंधनों से नहीं, बल्कि आंतरिक स्वतंत्रता और सत्य के पालन से मिलती है।

ए.पी.जे. अब्दुल कलाम: भारतीय मिसाइल मैन और प्रेरणास्त्रोत

अप्रैल 20, 2025 0

1. प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

डॉ. अवुल पाकिर जैनुलाब्दीन अब्दुल कलाम, जिन्हें हम ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के नाम से जानते हैं, 15 अक्टूबर 1931 को तमिलनाडु के रामेश्वरम नामक छोटे से गांव में जन्मे थे। उनका परिवार बहुत साधारण था। उनके पिता जैनुलअब्दीन एक नाविक थे और उनकी माँ आशियम्मल घरेलू महिला थीं। वे एक धार्मिक और साधारण परिवार से आते थे, लेकिन उनके परिवार ने हमेशा शिक्षा को प्राथमिकता दी।
 कलाम जी की शिक्षा भी बहुत साधारण थी, लेकिन उनकी मेहनत और लगन ने उन्हें आगे बढ़ने का हौसला दिया। प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने रामेश्वरम के एक छोटे से स्कूल से प्राप्त की थी। फिर, उन्होंने मदुरै के एक कॉलेज से विज्ञान में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। बाद में उन्होंने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) में प्रवेश लिया और एरोनॉटिकल इंजीनियरिंग में अपनी शिक्षा पूरी की।

2. करियर की शुरुआत

शुरुआत में, ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का करियर भारतीय रक्षा मंत्रालय के तहत शुरू हुआ। उन्होंने 1960 में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम में योगदान देना शुरू किया। वे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) के लिए काम करते हुए उपग्रह प्रक्षेपण प्रणालियों और मिसाइलों के विकास में शामिल थे। उनके योगदान से भारत ने एक प्रमुख मिसाइल शक्ति के रूप में अपनी पहचान बनाई।

डॉ. कलाम जी ने "विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर" और "ISRO" में काम करते हुए कई महत्वपूर्ण मिशनों को सफलतापूर्वक संचालित किया। उन्होंने भारत के पहले उपग्रह रॉकेट SLV-3 की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे भारत को अंतरिक्ष अनुसंधान क्षेत्र में एक नई दिशा मिली।

3. मिसाइल मैन के रूप में प्रसिद्धि

डॉ. कलाम को "मिसाइल मैन" के नाम से भी जाना जाता है। उनके नेतृत्व में भारतीय रक्षा मंत्रालय ने अग्नि, पृथ्वी, और त्रिशूल जैसी मिसाइल प्रणालियों का विकास किया। इन मिसाइलों ने भारत को एक सशक्त रक्षा प्रणाली प्रदान की और हमारे देश को अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा में एक नई ताकत बनाकर प्रस्तुत किया।
उनकी कड़ी मेहनत और तकनीकी उत्कृष्टता ने भारत को आत्मनिर्भर बनाने में मदद की। यह उनका सपना था कि भारत आत्मनिर्भर बने, और उन्होंने इसे अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से पूरा किया।

4. राष्ट्रपति बनने की यात्रा

अब्दुल कलाम जी के योगदान और सफलता ने उन्हें समाज में एक प्रमुख स्थान दिलाया। 2002 में, भारतीय नागरिकों ने उन्हें भारत के 11वें राष्ट्रपति के रूप में चुना। उनका राष्ट्रपति बनना भारतीय समाज और राजनीति में एक ऐतिहासिक पल था, क्योंकि वे एक वैज्ञानिक थे और उनके पास शास्त्र और तकनीकी ज्ञान का गहरा अनुभव था।
उनके राष्ट्रपति बनने से भारतीय जनता को यह संदेश मिला कि कोई भी व्यक्ति अपनी मेहनत और समर्पण से जीवन में कुछ भी हासिल कर सकता है। उनके राष्ट्रपति कार्यकाल में उन्होंने भारत के युवाओं को प्रेरित किया और उन्हें शिक्षा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, और राष्ट्र निर्माण के लिए आगे आने का उत्साह दिया।

5. "भारत 2020" और युवा शक्ति

डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने "भारत 2020" नामक एक पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने भारत को एक शक्तिशाली और समृद्ध राष्ट्र बनाने का सपना देखा था। इस पुस्तक में उन्होंने भविष्य में भारत के विकास के लिए अपनी योजनाओं और दृष्टिकोण को साझा किया। उनका सपना था कि 2020 तक भारत एक विकसित राष्ट्र बने और इसमें विज्ञान, प्रौद्योगिकी, शिक्षा, और स्वास्थ्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हो।

कलाम जी ने हमेशा भारतीय युवाओं को प्रेरित किया और उन्हें अपने सपनों को साकार करने के लिए संघर्ष करने का संदेश दिया। उनका मानना था कि यदि युवा सही दिशा में अपनी ऊर्जा और समय का उपयोग करें तो वे किसी भी मुश्किल को पार कर सकते हैं। उनके अनुसार, "युवाओं में शक्ति होती है, अगर वे अपने सपनों को हकीकत में बदलने का संकल्प लें।"

6. राष्ट्रपति कार्यकाल के बाद का जीवन



डॉ. कलाम का राष्ट्रपति कार्यकाल 2007 में समाप्त हुआ, लेकिन वे जनता के बीच अपने प्रेरणादायक विचारों के साथ हमेशा जीवित रहे। राष्ट्रपति बनने के बाद भी, उन्होंने कभी राजनीति में नहीं उतरने का निर्णय लिया। उनका उद्देश्य हमेशा से समाज के लिए काम करना था, और उन्होंने खुद को कभी भी किसी राजनीतिक लाभ के लिए नहीं रखा।

राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने भारत भर में स्कूलों, विश्वविद्यालयों और संस्थानों का दौरा किया। उन्होंने विद्यार्थियों से संवाद किया और उन्हें अपने सपनों के प्रति प्रेरित किया। उनके विचारों ने लाखों युवाओं को अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया।
 

7. डॉ. कलाम की धरोहर

डॉ. कलाम के निधन के बाद, उनका नाम भारतीय समाज में हमेशा जीवित रहेगा। उन्होंने अपनी जिंदगी में जितना कुछ किया, वह न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया के लिए प्रेरणादायक है। उनका जीवन, उनकी शिक्षाएं और उनके विचार हम सभी के लिए एक अमूल्य धरोहर हैं।

"कभी हार मत मानो, यदि तुम अपने सपनों को साकार करना चाहते हो।" यह उनका सबसे महत्वपूर्ण संदेश था।

डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने हमें यह सिखाया कि यदि आपके पास सपना है और आप उसे पूरा करने के लिए ईमानदारी से मेहनत करते हैं, तो कोई भी मुश्किल आपको रोक नहीं सकती। उनका जीवन यही प्रमाण है कि एक व्यक्ति के पास यदि सच्ची प्रेरणा और लक्ष्य हो, तो वह किसी भी ऊंचाई को छू सकता है।

8. अंत में

ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का जीवन संघर्ष, सफलता, और आत्मविश्वास का प्रतीक है। वे न केवल एक वैज्ञानिक थे, बल्कि एक महान शिक्षक, विचारक और प्रेरणास्त्रोत भी थे। उनकी शिक्षा, उनके विचार, और उनका दृष्टिकोण भारतीय समाज में एक सकारात्मक बदलाव का कारण बने। उनका योगदान भारतीय वैज्ञानिक समाज, शिक्षा, और समाज के हर क्षेत्र में अनमोल रहेगा।

उनकी कहानियां, उनके दृष्टिकोण और उनका कार्य आज भी हमें प्रेरित करता है और हमें यह समझाता है कि सही दिशा में किया गया कार्य, मेहनत और समर्पण अंततः सफलता की ओर ले जाता है। Click Subscribe

श्री सत्यनारायण व्रत कथा

अप्रैल 20, 2025 0

सत्यनारायण कथा के महत्व

सत्यनारायण कथा का श्रवण करने से अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। यह न केवल धार्मिक
 दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि मानसिक और भौतिक सुख-शांति के लिए भी अत्यंत लाभकारी है। कुछ प्रमुख लाभइस प्रकार हैं: 
समस्या का समाधान: सत्यनारायण कथा को श्रद्धा पूर्वक सुनने से जीवन की 
तमाम समस्याओं का समाधान होता है। कठिनाइयाँ कम होती हैं और व्यक्ति को सही दिशा मिलती है।
धन-धान्य की प्राप्ति: इस कथा का नियमित रूप से वाचन करने से घर में सुख-समृद्धि का वास होता है। व्यक्ति की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है और धन का आगमन होता है।
मानसिक शांति: सत्यनारायण भगवान की पूजा और कथा से मानसिक शांति मिलती है। यह तनाव और मानसिक अशांति को दूर करती है।
सच्चाई की शक्ति: सत्य बोलने और सच के मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है, जिससे जीवन में नैतिक और आत्मिक उन्नति होती है।
भगवान की कृपा: कथा में भगवान सत्यनारायण की कृपा की महिमा को बताया गया है, जिससे भक्तों को भगवान के आशीर्वाद से जीवन में सुख, शांति और सफलता मिलती है

प्रथम अध्याय

एक समय की बात है — नैमिषारण्य तीर्थ में शौनकादि अठ्ठासी हजार ऋषियों ने सूतजी से प्रश्न किया,
"हे प्रभु! इस कलियुग में, जब लोग वेदविद्या से दूर होते जा रहे हैं, ऐसे मनुष्यों को भगवान की भक्ति किस प्रकार प्राप्त हो सकती है? और उनका उद्धार कैसे होगा?
कृपया ऐसा कोई तप बताइए जिससे थोड़े समय में पुण्य और मनवांछित फल प्राप्त हो।"

सर्वशास्त्रज्ञ सूतजी बोले —
"हे वैष्णवों में श्रेष्ठ! आपने प्राणियों के हित की बात पूछी है। इसलिए मैं आपको एक श्रेष्ठ व्रत की कथा सुनाता हूँ जिसे स्वयं नारदजी ने लक्ष्मीनारायणजी से पूछा था।
लक्ष्मीपति नारायणजी ने नारदजी से कहा — ध्यानपूर्वक सुनिए।"

एक बार नारदजी, दूसरों के कल्याण की इच्छा से अनेक लोकों में भ्रमण करते हुए मृत्युलोक में आए।
यहाँ उन्होंने देखा कि मनुष्य विभिन्न योनियों में जन्म लेकर अपने कर्मों के फलस्वरूप अनेक दुःख भोग रहे हैं।
यह देखकर नारदजी सोचने लगे, "कोई ऐसा उपाय हो जिससे इन प्राणियों के दुःखों का अंत हो।"

यह विचार कर वे विष्णुलोक पहुंचे और भगवान विष्णु की स्तुति करने लगे।
विष्णु भगवान — जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म थे, गले में वैजयंती माला सुशोभित थी — नारदजी की स्तुति से प्रसन्न होकर बोले —
"हे मुनिश्रेष्ठ! बताइए, किस कार्य के लिए पधारे हैं?"

नारदजी बोले —
"हे भगवन्! मृत्युलोक में मनुष्य अपने कर्मों से दुखी हैं। कृपा करके कोई सरल उपाय बताइए जिससे वे दुःखों से मुक्त हो सकें।"

भगवान विष्णु बोले —
"हे नारद! यह प्रश्न बहुत हितकारी है। सुनो —
स्वर्ग और मृत्युलोक में एक अत्यंत पुण्यदायक श्रेष्ठ व्रत है — श्री सत्यनारायण व्रत।
जो श्रद्धा और भक्ति से इस व्रत को करता है, वह मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त करता है और जीवित रहते सुख भोगता है।"

नारदजी ने पूछा —
"हे प्रभो! इस व्रत का विधान क्या है? इसे किस दिन करना चाहिए? इसके करने से क्या फल मिलता है?"

श्रीहरि बोले —
"यह व्रत दुख, शोक और दरिद्रता को दूर करने वाला तथा विजय दिलाने वाला है।
इसे सायंकाल ब्राह्मणों और बंधु-बांधवों के साथ धर्मपूर्वक करना चाहिए।
भक्ति भाव से केले का फल, घी, दूध, गेहूँ का आटा (या साठी का आटा), शक्कर, गुड़ और भक्षण योग्य पदार्थों से नैवेद्य तैयार करना चाहिए।
भगवान को भोग अर्पित कर, ब्राह्मणों व बंधु-बांधवों को भोजन कराएं।
उसके बाद स्वयं भोजन करें और भजन-कीर्तन के साथ भगवान की भक्ति में लीन हो जाएं।
इस प्रकार सत्यनारायण व्रत करने से मनुष्य की सारी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं।
कलियुग में मोक्ष का यही सरल उपाय है।"

॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा प्रथम अध्याय संपूर्ण ॥


द्वितीय अध्याय

सूतजी बोले —
"हे ऋषियों! अब मैं आपको बताता हूँ कि पहले किसने इस व्रत को किया था।"

काशीपुरी नगरी में एक निर्धन ब्राह्मण रहता था, जो भूख-प्यास से व्याकुल होकर भिक्षा के लिए भटकता था।
भगवान सत्यनारायण ने वृद्ध ब्राह्मण का वेश धरकर उसके पास जाकर पूछा —
"हे विप्र! आप इतने दुखी होकर पृथ्वी पर क्यों घूमते हैं?"

ब्राह्मण बोला —
"मैं अत्यंत निर्धन हूँ। कृपया कोई उपाय बताइए।"

वृद्ध ब्राह्मण बोले —
"श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत करो। यह व्रत सभी दुखों का नाश करता है और मनवांछित फल देता है।"

इतना कहकर भगवान अंतर्धान हो गए।
ब्राह्मण ने निश्चय किया कि वह इस व्रत को अवश्य करेगा।
भिक्षा में उसी दिन उसे पर्याप्त धन मिला।
उसने बंधु-बांधवों के साथ मिलकर विधिपूर्वक व्रत किया।
व्रत के प्रभाव से वह निर्धन ब्राह्मण धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।

सूतजी बोले —
"जो भी इस व्रत को करेगा, वह पापों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करेगा।"

ऋषियों ने फिर पूछा —
"हे मुनिवर! इसके बाद और किस-किसने इस व्रत को किया?"

सूतजी बोले —
"सुनो!"

वही ब्राह्मण जब एक बार व्रत कर रहा था, तभी एक लकड़हारा आया।
ब्राह्मण ने उसे सत्यनारायण व्रत के बारे में बताया।
लकड़हारा प्रसन्न हुआ और प्रण किया कि लकड़ी बेचकर मिले धन से वह भी व्रत करेगा।

उस दिन लकड़ियों का मूल्य चार गुना अधिक मिला।
लकड़हारे ने आवश्यक सामग्री खरीदकर बंधु-बांधवों के साथ व्रत संपन्न किया।
व्रत के प्रभाव से वह भी धन, पुत्र आदि से युक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हुआ।

॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा द्वितीय अध्याय संपूर्ण ॥


तृतीय अध्याय

सूतजी बोले —
"अब आगे की कथा कहता हूँ।"

प्राचीनकाल में उल्कामुख नामक एक राजा था, जो सत्यवादी और जितेन्द्रिय था।
वह प्रतिदिन देवस्थलों पर जाता और निर्धनों को दान देता था।
भद्रशीला नदी के तट पर उसने अपनी पत्नी के साथ श्रीसत्यनारायण व्रत किया।

उसी समय साधु नाम का एक वैश्य आया।
व्रत को देखकर उसने राजा से पूछा —
"हे राजन! आप यह क्या कर रहे हैं?"

राजा ने बताया —
"हम पुत्रादि की प्राप्ति हेतु श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत कर रहे हैं।"

साधु वैश्य ने भी व्रत का संकल्प किया और अपनी पत्नी लीलावती से कहा —
"संतान होने पर हम व्रत करेंगे।"

कालांतर में लीलावती गर्भवती हुई और एक सुंदर कन्या कलावती का जन्म हुआ।
कलावती धीरे-धीरे बड़ी हुई।
एक दिन साधु ने कन्या के विवाह हेतु योग्य वर खोजा और कन्या का विवाह कर दिया, परंतु अभी तक व्रत नहीं किया।

भगवान सत्यनारायण क्रोधित हुए।
साधु जब अपनी पुत्री-दामाद के साथ व्यापार हेतु समुद्र किनारे गया, तभी भगवान की माया से वह चोरी के झूठे आरोप में फंसा और उसे कारावास हो गया।
उधर घर में चोरों ने सारा धन चुरा लिया। साधु की पत्नी लीलावती और पुत्री कलावती अत्यंत दुःखी हो गईं।

कलावती एक दिन एक ब्राह्मण के घर सत्यनारायण व्रत होते देखकर प्रसाद लाई और माता से सब कहा।
लीलावती ने भी विधिपूर्वक व्रत किया और भगवान से प्रार्थना की।

भगवान सत्यनारायण प्रसन्न हुए।
उन्होंने चन्द्रकेतु राजा को स्वप्न में आदेश दिया कि साधु और उसके दामाद को छोड़ दे और उनका धन लौटाए।
राजा ने वैसा ही किया। साधु अपने घर लौट आया।

॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा तृतीय अध्याय संपूर्ण ॥


चतुर्थ अध्याय

सूतजी बोले —
"अब आगे की कथा सुनिए।"

साधु वैश्य ने प्रसन्न होकर अपने नगर को यात्रा शुरू की।
रास्ते में श्रीसत्यनारायण भगवान ने दण्डी के वेश में उससे पूछा —
"हे साधु! तेरी नाव में क्या है?"

साधु ने उपहासपूर्वक उत्तर दिया —
"मेरी नाव में तो बेल-पत्ते हैं।"

भगवान ने कहा —
"जैसा कहा, वैसा ही हो।"

साधु ने जब नाव खोली तो उसमें वास्तव में बेल-पत्ते ही थे।
वह अत्यंत दुःखी हो गया।
दामाद ने सलाह दी कि दण्डी के पास जाकर क्षमा मांगे।
दोनों ने भगवान से क्षमा याचना की।

भगवान सत्यनारायण प्रसन्न हुए।
उन्होंने नाव को पुनः धन-रत्नों से भर दिया।
साधु वैश्य ने अपने नगर लौटकर बड़े धूमधाम से व्रत किया।
इस प्रकार भगवान की कृपा से उसे अपार सुख और मोक्ष की प्राप्ति हुई।

॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा चतुर्थ अध्याय संपूर्ण ॥


पंचम अध्याय

सूतजी बोले —
"हे ऋषियों! अब मैं श्रीसत्यनारायण व्रत कथा का अंतिम अध्याय कहता हूँ। ध्यानपूर्वक सुनिए।"

एक समय नंद ग्राम में एक निर्धन एवं धर्मपरायण राजा अंगिरस राज्य करते थे।
उन्होंने भी व्रत की महिमा सुनकर, श्रद्धा से सत्यनारायण व्रत किया।
व्रत के प्रभाव से उन्हें अपार धन, सुख और संतति की प्राप्ति हुई।

इसी प्रकार जो भी मनुष्य श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से इस व्रत को करता है, उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।
जो व्रत कथा को सुनता या सुनाता है, वह जीवन में सुख, संपत्ति, पुत्र, पौत्र आदि से सम्पन्न होकर अंत में विष्णुलोक को प्राप्त होता है।

इस व्रत में विशेष ध्यान देना चाहिए कि व्रत के दिन वाणी, मन और कर्म से पवित्र रहें।
व्रत समाप्ति के बाद ब्राह्मणों को भोजन कराएं, उन्हें दक्षिणा दें और फिर स्वयं भोजन करें।
इस प्रकार विधिपूर्वक सत्यनारायण व्रत करने से मनुष्य की सभी कामनाएँ पूर्ण होती हैं।

श्रीसत्यनारायण व्रत कथा को सुनने से घर में आनंद, सुख-शांति और कल्याण की वृद्धि होती है।
जो श्रद्धा से भगवान का नाम लेता है, वह संसार सागर से तर जाता है।

इस व्रत के प्रभाव से व्यक्ति को दीर्घायु, आरोग्य और सभी मनोरथों की सिद्धि होती है।
जो हर माह पूर्णिमा को, अथवा विशेष शुभ अवसरों पर, इस व्रत को करता है, वह इस जीवन में ही स्वर्गीय सुखों का अनुभव करता है।

सूतजी बोले —
"हे महर्षियो! मैंने आप सबको श्रीसत्यनारायण व्रत कथा सुनाई।
जो भक्तिपूर्वक इस कथा का श्रवण या वाचन करता है, वह समस्त दुखों से मुक्त होकर अंत में भगवान के धाम को प्राप्त होता है।"

सर्वे जनाः सुखिनः भवन्तु।

॥ इति श्रीसत्यनारायण व्रतकथा पंचम अध्याय संपूर्ण ॥



श्रीगोपाल सहस्त्रनाम स्तोत्रम्

अप्रैल 20, 2025 0

   अर्थ  ध्यानम्‌

 कस्तूरीतिलकं ललाटपटले वक्ष:स्थले कौस्तुभं
नासाग्रे वरमौत्तिकं करतले वेणुं करे कंकणम ।

सर्वाड़्गे हरिचन्दनं सुललितं कण्ठे च मुक्तावलि –
र्गोपस्रीपरिवेष्टितो विजयते गोपालचूडामणि: ।।1।।

फुल्लेन्दीवरकान्तिमिन्दुवदनं बर्हावतंसप्रियं
श्रीवत्साड़्कमुदारकौस्तुभधरं पीताम्बरं सुन्दरम ।

गोपीनां नयनोत्पलार्चिततनुं गोगोपसंघावृतं
गोविन्दं कलवेणुवादनपरं दिव्याड़्गभूषं भजे ।।2।।


इति ध्यानम्‌

ऊँ क्लीं देव: कामदेव: कामबीजशिरोमणि: ।

श्रीगोपालको महीपाल: सर्वव्र्दान्तपरग: ।।

धरणीपालको धन्य: पुण्डरीक: सनातन: ।
गोपतिर्भूपति: शास्ता प्रहर्ता विश्वतोमुख: ।।

आदिकर्ता महाकर्ता महाकाल: प्रतापवान ।
जगज्जीवो जगद्धाता जगद्भर्ता जगद्वसु: ।।

मत्स्यो भीम: कुहूभर्ता हर्ता वाराहमूर्तिमान ।
नारायणो ह्रषीकेशो गोविन्दो गरुडध्वज: ।।

गोकुलेन्द्रो महाचन्द्र: शर्वरीप्रियकारक: ।
कमलामुखलोलाक्ष: पुण्डरीक शुभावह: ।।

दुर्वासा: कपीलो भौम: सिन्धुसागरसड़्गम: ।
गोविन्दो गोपतिर्गोत्र: कालिन्दीप्रेमपूरक: ।।

गोपस्वामी गोकुलेन्द्रो गोवर्धनवरप्रद: ।
नन्दादिगोकुलत्राता दाता दारिद्रयभंजन: ।।

सर्वमंगलदाता च सर्वकामप्रदायक: ।
आदिकर्ता महीभर्ता सर्वसागरसिन्धुज: ।।

गजगामी गजोद्धारी कामी कामकलानिधि: ।
कलंकरहितश्चन्द्रो बिम्बास्यो बिम्बसत्तम: ।।

मालाकार: कृपाकार: कोकिलास्वरभूषण: ।
रामो नीलाम्बरो देवो हली दुर्दममर्दन: ।।

सहस्राक्षपुरीभेत्ता महामारीविनाशन: ।
शिव: शिवतमो भेत्ता बलारातिप्रपूजक: ।।

कुमारीवरदायी च वरेण्यो मीनकेतन: ।
नरो नारायणो धीरो राधापतिरुदारधी: ।।

श्रीपति: श्रीनिधि: श्रीमान मापति: प्रतिराजहा ।
वृन्दापति: कुलग्रामी धामी ब्रह्मसनातन: ।।

रेवतीरमणो रामाश्चंचलश्चारुलोचन: ।
रामायणशरीरोsयं रामी राम: श्रिय:पति: ।।

शर्वर: शर्वरी शर्व: सर्वत्रशुभदायक: ।
राधाराधायितो राधी राधाचित्तप्रमोदक: ।।

राधारतिसुखोपेतो राधामोहनतत्पर: ।
राधावशीकरो राधाह्रदयांभोजषट्पद: ।।

राधालिंगनसंमोहो राधानर्तनकौतुक: ।
राधासंजातसम्प्रीती राधाकामफलप्रद: ।।

वृन्दापति: कोशनिधिर्लोकशोकविनाशक: ।
चन्द्रापतिश्चन्द्रपतिश्चण्डकोदण्दभंजन: ।।

रामो दाशरथी रामो भृगुवंशसमुदभव: ।
आत्मारामो जितक्रोधो मोहो मोहान्धभंजन ।।

वृषभानुर्भवो भाव: काश्यपि: करुणानिधि: ।
कोलाहलो हली हाली हेली हलधरप्रिय: ।।

राधामुखाब्जमार्तण्डो भास्करो विरजो विधु: ।
विधिर्विधाता वरुणो वारुणो वारुणीप्रिय: ।।

रोहिणीह्रदयानन्दी वसुदेवात्मजो बलि: ।
नीलाम्बरो रौहिणेयो जरासन्धवधोsमल: ।।

नागो नवाम्भोविरुदो वीरहा वरदो बली ।
गोपथो विजयी विद्वान शिपिविष्ट: सनातन: ।।

पर्शुरामवचोग्राही वरग्राही श्रृगालहा ।
दमघोषोपदेष्टा च रथग्राही सुदर्शन: ।।

वीरपत्नीयशस्राता जराव्याधिविघातक: ।
द्वारकावासतत्त्वज्ञो हुताशनवरप्रद: ।।

यमुनावेगसंहारी नीलाम्बरधर: प्रभु: ।
विभु: शरासनो धन्वी गणेशो गणनायक: ।।

लक्ष्मणो लक्षणो लक्ष्यो रक्षोवंशविनशन: ।
वामनो वामनीभूतो बलिजिद्विक्रमत्रय: ।।

यशोदानन्दन: कर्ता यमलार्जुनमुक्तिद:
उलूखली महामानी दामबद्धाह्वयी शमी ।।

भक्तानुकारी भगवान केशवोsचलधारक: ।
केशिहा मधुहा मोही वृषासुरविघातक: ।।

अघासुरविनाशी च पूतनामोक्षदायक: ।
कुब्जाविनोदी भगवान कंसमृत्युर्महामखी ।।

अश्वमेधो वाजपेयो गोमेधो नरमेधवान ।
कन्दर्पकोटिलावण्यश्चन्द्रकोटिसुशीतल: ।।

रविकोटिप्रतीकाशो वायुकोटिमहाबल: ।
ब्रह्मा ब्रह्माण्डकर्ता च कमलावांछितप्रद: ।।

कमली कमलाक्षश्च कमलामुखलोलुप: ।
कमलाव्रतधारी च कमलाभ: पुरन्दर: ।।

सौभाग्याधिकचित्तोsयं महामायी महोत्कट: ।
तारकारि: सुरत्राता मारीचक्षोभकारक: ।।

विश्वामित्रप्रियो दान्तो रामो राजीवलोचन: ।
लंकाधिपकुलध्वंसी विभिषणवरप्रद: ।।

सीतानन्दकरो रामो वीरो वारिधिबन्धन: ।
खरदूषणसंहारी साकेतपुरवासन: ।।

चन्द्रावलीपति: कूल: केशी कंसवधोsमर: ।
माधवी मधुहा माध्वी माध्वीको माधवो मधु: ।।

मुंजाटवीगाहमानो धेनुकारिर्धरात्मज: ।
वंशी वटबिहारी च गोवर्धनवनाश्रय: ।।

तथा तालवनोद्देशी भाण्डीरवनशंखहा ।
तृणावर्तकथाकारी वृषभनुसुतापति: ।।

राधाप्राणसमो राधावदनाब्जमधुव्रत: ।
गोपीरंजनदैवज्ञो लीलाकमलपूजित: ।।

क्रीडाकमलसन्दोहो गोपिकाप्रीतिरंजन: ।
रंजको रंजनो रड़्गो रड़्गी रंगमहीरुह ।।

काम: कामारिभक्तोsयं पुराणपुरुष: कवि: ।
नारदो देवलो भीमो बालो बालमुखाम्बुज: ।।

अम्बुजो ब्रह्मसाक्षी च योगीदत्तवरो मुनि: ।
ऋषभ: पर्वतो ग्रामो नदीपवनवल्लभ: ।।

पद्मनाभ: सुरज्येष्ठो ब्रह्मा रुद्रोsहिभूषित: ।
गणानां त्राणकर्ता च गणेशो ग्रहिलो ग्रही ।।

गणाश्रयो गणाध्यक्ष: क्रोडीकृतजगत्रय: ।
यादवेन्द्रो द्वारकेन्द्रो मथुरावल्लभो धुरी ।।

भ्रमर: कुन्तली कुन्तीसुतरक्षी महामखी ।
यमुनावरदाता च कश्यपस्य वरप्रद: ।।

शड़्खचूडवधोद्दामो गोपीरक्षणतत्पर: ।
पांचजन्यकरो रामी त्रिरामी वनजो जय: ।।

फाल्गुन: फाल्गुनसखो विराधवधकारक: ।
रुक्मिणीप्राणनाथश्च सत्यभामाप्रियंकर: ।।

कल्पवृक्षो महावृक्षो दानवृक्षो महाफल: ।
अंकुशो भूसुरो भामो भामको भ्रामको हरि: ।।

सरल: शाश्वत: वीरो यदुवंशी शिवात्मक: ।
प्रद्युम्नबलकर्ता च प्रहर्ता दैत्यहा प्रभु: ।।

महाधनो महावीरो वनमालाविभूषण: ।
तुलसीदामशोभाढयो जालन्धरविनाशन: ।।

शूर: सूर्यो मृकण्डश्च भास्करो विश्वपूजित: ।
रविस्तमोहा वह्निश्च वाडवो वडवानल: ।।

दैत्यदर्पविनाशी च गरुड़ो गरुडाग्रज: ।
गोपीनाथो महीनाथो वृन्दानाथोsवरोधक: ।।

प्रपंची पंचरूपश्च लतागुल्मश्च गोपति: ।
गंगा च यमुनारूपो गोदा वेत्रवती तथा ।।

कावेरी नर्मदा तापी गण्दकी सरयूस्तथा ।
राजसस्तामस: सत्त्वी सर्वांगी सर्वलोचन: ।।

सुधामयोsमृतमयो योगिनीवल्लभ: शिव: ।
बुद्धो बुद्धिमतां श्रेष्ठोविष्णुर्जिष्णु: शचीपति: ।।

वंशी वंशधरो लोको विलोको मोहनाशन: ।
रवरावो रवो रावो बालो बालबलाहक: ।।

शिवो रुद्रो नलो नीलो लांगुली लांगुलाश्रय: ।
पारद: पावनो हंसो हंसारूढ़ो जगत्पति: ।।

मोहिनीमोहनो मायी महामायो महामखी ।
वृषो वृषाकपि: काल: कालीदमनकारक: ।।

कुब्जभाग्यप्रदो वीरो रजकक्षयकारक: ।
कोमलो वारुणो राज जलदो जलधारक: ।।

हारक: सर्वपापघ्न: परमेष्ठी पितामह: ।
खड्गधारी कृपाकारी राधारमणसुन्दर: ।।

द्वादशारण्यसम्भोगी शेषनागफणालय: ।
कामश्याम: सुख: श्रीद: श्रीपति: श्रीनिधि: कृति: ।।

हरिर्हरो नरो नारो नरोत्तम इषुप्रिय: ।
गोपालो चित्तहर्ता च कर्ता संसारतारक: ।।

आदिदेवो महादेवो गौरीगुरुरनाश्रय: ।
साधुर्मधुर्विधुर्धाता भ्राताsक्रूरपरायण: ।।

रोलम्बी च हयग्रीवो वानरारिर्वनाश्रय: ।
वनं वनी वनाध्यक्षो महाबंधो महामुनि: ।।

स्यमन्तकमणिप्राज्ञो विज्ञो विघ्नविघातक: ।
गोवर्धनो वर्धनीयो वर्धनी वर्धनप्रिय: ।।

वर्धन्यो वर्धनो वर्धी वार्धिन्य: सुमुखप्रिय: ।
वर्धितो वृद्धको वृद्धो वृन्दारकजनप्रिय: ।।

गोपालरमणीभर्ता साम्बुकुष्ठविनाशन: ।
रुक्मिणीहरण: प्रेमप्रेमी चन्द्रावलीपति: ।।

श्रीकर्ता विश्वभर्ता च नारायणनरो बली ।
गणो गणपतिश्चैव दत्तात्रेयो महामुनि: ।।

व्यासो नारायणो दिव्यो भव्यो भावुकधारक: ।
श्व: श्रेयसं शिवं भद्रं भावुकं भविकं शुभम ।।

शुभात्मक: शुभ: शास्ता प्रशस्ता मेघनादहा ।
ब्रह्मण्यदेवो दीनानामुद्धारकरणक्षम: ।।

कृष्ण: कमलपत्राक्ष: कृष्ण: कमललोचन: ।
कृष्ण: कामी सदा कृष्ण: समस्तप्रियकारक: ।।

नन्दो नन्दी महानन्दी मादी मादनक: किली ।
मिली हिली गिली गोली गोलो गोलालयी गुली ।।

गुग्गुली मारकी शाखी वट: पिप्पलक: कृती ।
म्लेक्षहा कालहर्ता च यशोदायश एव च ।।

अच्युत: केशवो विष्णुर्हरि: सत्यो जनार्दन: ।
हंसो नारायणो लीलो नीलो भक्तिपरायण: ।।

जानकीवल्लभो रामो विरामो विघ्ननाशन: ।
सहस्रांशुर्महाभानुर्वीरबाहुर्महोदधि: ।।

समुद्रोsब्धिरकूपार: पारावार: सरित्पति: ।
गोकुलानन्दकारी च प्रतिज्ञापरिपालक: ।।

सदाराम: कृपारामो महारामो धनुर्धर: ।
पर्वत: पर्वताकारो गयो गेयो द्विजप्रिय: ।।

कमलाश्वतरो रामो रामायणप्रवर्तक: ।
द्यौदिवौ दिवसो दिव्यो भव्यो भाविभयापह: ।।

पार्वतीभाग्यसहितो भ्राता लक्ष्मीविलासवान ।
विलासी साहसी सर्वी गर्वी गर्वितलोचन: ।।

मुरारिर्लोकधर्मज्ञो जीवनो जीवनान्तक: ।
यमो यमादिर्यमनो यामी यामविधायक: ।।

वसुली पांसुली पांसुपाण्डुरर्जुनवल्लभ: ।
ललिताचन्द्रिकामाली माली मालाम्बुजाश्रय: ।।

अम्बुजाक्षो महायज्ञो दक्षश्चिन्तामणिप्रभु: ।
मणिर्दिनमणिश्चैव केदारो बदरीश्रय: ।।

बदरीवनसम्प्रीतो व्यास: सत्यवतीसुत: ।
अमरारिनिहन्ता च सुधासिन्धुर्विधूदय: ।।

चन्द्रो रवि: शिव: शूली चक्री चैव गदाधर: ।
श्रीकर्ता श्रीपति: श्रीद: श्रीदेवो देवकीसुत: ।।

श्रीपति: पुण्डरीकाक्ष: पद्मनाभो जगत्पति: ।
वासुदेवोsप्रमेयात्मा केशवो गरुडध्वज: ।।

नारायण: परं धाम देवदेवो महेश्वर: ।
चक्रपाणि: कलापूर्णो वेदवेद्यो दयानिधि: ।।

भगवान सर्वभूतेशो गोपाल: सर्वपालक: ।
अनन्तो निर्गुणोsनन्तो निर्विकल्पो निरंजन: ।।

निराधारो निराकारो निराभासो निराश्रय: ।
पुरुष: प्रणवातीतो मुकुन्द: परमेश्वर: ।।

क्षणावनि: सर्वभौमो वैकुण्ठो भक्तवत्सल: ।
विष्णुर्दामोदर: कृष्णो माधवो मथुरापति: ।।

देवकीगर्भसम्भूतयशोदावत्सलो हरि: ।
शिव: संकर्षण: शंभुर्भूतनाथो दिवस्पति: ।।

अव्यय: सर्वधर्मज्ञो निर्मलो निरुपद्रव: ।
निर्वाणनायको नित्योsनिलजीमूतसन्निभ: ।।

कालाक्षयश्च सर्वज्ञ: कमलारूपतत्पर: ।
ह्रषीकेश: पीतवासा वासुदेवप्रियात्मज: ।।

नन्दगोपकुमारार्यो नवनीताशन: प्रभु: ।
पुराणपुरुष: श्रेष् शड़्खपाणि: सुविक्रम: ।।

अनिरुद्धश्वक्ररथ: शार्ड़्गपाणिश्चतुर्भुज: ।
गदाधर: सुरार्तिघ्नो गोविन्दो नन्दकायुध: ।।

वृन्दावनचर: सौरिर्वेणुवाद्यविशारद: ।
तृणावर्तान्तको भीमसाहसो बहुविक्रम: ।।

सकटासुरसंहारी बकासुरविनाशन: ।
धेनुकासुरसड़्घात: पूतनारिर्नृकेसरी ।।

पितामहो गुरु: साक्षी प्रत्यगात्मा सदाशिव: ।
अप्रमेय: प्रभु: प्राज्ञोsप्रतर्क्य: स्वप्नवर्धन: ।।

धन्यो मान्यो भवो भावो धीर: शान्तो जगदगुरु: ।
अन्तर्यामीश्वरो दिव्यो दैवज्ञो देवता गुरु: ।।

क्षीराब्धिशयनो धाता लक्ष्मीवाँल्लक्ष्मणाग्रज: ।
धात्रीपतिरमेयात्मा चन्द्रशेखरपूजित: ।।

लोकसाक्षी जगच्चक्षु: पुण्य़चारित्रकीर्तन: ।
कोटिमन्मथसौन्दर्यो जगन्मोहनविग्रह: ।।

मन्दस्मिततमो गोपो गोपिका परिवेष्टित: ।
फुल्लारविन्दनयनश्चाणूरान्ध्रनिषूदन: ।।

इन्दीवरदलश्यामो बर्हिबर्हावतंसक: ।
मुरलीनिनदाह्लादो दिव्यमाल्यो वराश्रय: ।।

सुकपोलयुग: सुभ्रूयुगल: सुललाटक: ।
कम्बुग्रीवो विशालाक्षो लक्ष्मीवान शुभलक्षण: ।।

पीनवक्षाश्चतुर्बाहुश्चतुर्मूर्तीस्त्रिविक्रम: ।
कलंकरहित: शुद्धो दुष्टशत्रुनिबर्हण: ।।

किरीटकुण्डलधर: कटकाड़्गदमण्डित: ।
मुद्रिकाभरणोपेत: कटिसूत्रविराजित: ।।

मंजीररंजितपद: सर्वाभरणभूषित: ।
विन्यस्तपादयुगलो दिव्यमंगलविग्रह: ।।

गोपिकानयनानन्द: पूर्णश्चन्द्रनिभानन: ।
समस्तजगदानन्दसुन्दरो लोकनन्दन: ।।

यमुनातीरसंचारी राधामन्मथवैभव: ।
गोपनारीप्रियो दान्तो गोपिवस्त्रापहारक: ।।

श्रृंगारमूर्ति: श्रीधामा तारको मूलकारणम ।
सृष्टिसंरक्षणोपाय: क्रूरासुरविभंजन ।।

नरकासुरहारी च मुरारिर्वैरिमर्दन: ।
आदितेयप्रियो दैत्यभीकरश्चेन्दुशेखर: ।।

जरासन्धकुलध्वंसी कंसाराति: सुविक्रम: ।
पुण्यश्लोक: कीर्तनीयो यादवेन्द्रो जगन्नुत: ।।

रुक्मिणीरमण: सत्यभामाजाम्बवतीप्रिय: ।
मित्रविन्दानाग्नजितीलक्ष्मणासमुपासित: ।।

सुधाकरकुले जातोsनन्तप्रबलविक्रम: ।
सर्वसौभाग्यसम्पन्नो द्वारकायामुपस्थित: ।।

भद्रसूर्यसुतानाथो लीलामानुषविग्रह: ।
सहस्रषोडशस्त्रीशो भोगमोक्षैकदायक: ।।

वेदान्तवेद्य: संवेद्यो वैधब्रह्माण्डनयक: ।
गोवर्धनधरो नाथ: सर्वजीवदयापर: ।।

मूर्तिमान सर्वभूतात्मा आर्तत्राणपरायण: ।
सर्वज्ञ: सर्वसुलभ: सर्वशास्त्रविशारद: ।।

षडगुणैश्चर्यसम्पन्न: पूर्णकामो धुरन्धर: ।
महानुभाव: कैवल्यदायको लोकनायक: ।।

आदिमध्यान्तरहित: शुद्धसात्त्विकविग्रह: ।
आसमानसमस्तात्मा शरणागतवत्सल: ।।

उत्पत्तिस्थितिसंहारकारणं सर्वकारणम ।
गंभीर: सर्वभावज्ञ: सच्चिदानन्दविग्रह: ।।

विष्वक्सेन: सत्यसन्ध: सत्यवान्सत्यविक्रम: ।
सत्यव्रत: सत्यसंज्ञ सर्वधर्मपरायण: ।।

आपन्नार्तिप्रशमनो द्रौपदीमानरक्षक: ।
कन्दर्पजनक: प्राज्ञो जगन्नाटकवैभव: ।।

भक्तिवश्यो गुणातीत: सर्वैश्वर्यप्रदायक: ।
दमघोषसुतद्वेषी बाण्बाहुविखण्डन: ।।

भीष्मभक्तिप्रदो दिव्य: कौरवान्वयनाशन: ।
कौन्तेयप्रियबन्धुश्च पार्थस्यन्दनसारथि: ।।

नारसिंहो महावीरस्तम्भजातो महाबल: ।
प्रह्लादवरद: सत्यो देवपूज्यो भयंकर: ।।

उपेन्द्र: इन्द्रावरजो वामनो बलिबन्धन: ।
गजेन्द्रवरद: स्वामी सर्वदेवनमस्कृत: ।।

शेषपर्यड़्कशयनो वैनतेयरथो जयी ।
अव्याहतबलैश्वर्यसम्पन्न: पूर्णमानस: ।।

योगेश्वरेश्वर: साक्षी क्षेत्रज्ञो ज्ञानदायक: ।
योगिह्रत्पड़्कजावासो योगमायासमन्वित: ।।

नादबिन्दुकलातीतश्चतुर्वर्गफलप्रद: ।
सुषुम्नामार्गसंचारी सन्देहस्यान्तरस्थित: ।।

देहेन्द्रियमन: प्राणसाक्षी चेत:प्रसादक: ।
सूक्ष्म: सर्वगतो देहीज्ञानदर्पणगोचर: ।।

तत्त्वत्रयात्मकोsव्यक्त: कुण्डलीसमुपाश्रित: ।
ब्रह्मण्य: सर्वधर्मज्ञ: शान्तो दान्तो गतक्लम: ।।

श्रीनिवास: सदानन्दी विश्वमूर्तिर्महाप्रभु: ।
सहस्त्रशीर्षा पुरुष: सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात: ।।

समस्तभुवनाधार: समस्तप्राणरक्षक: ।
समस्तसर्वभावज्ञो गोपिकाप्राणरक्षक: ।।

नित्योत्सवो नित्यसौख्यो नित्यश्रीर्नित्यमंगल: ।
व्यूहार्चितो जगन्नाथ: श्रीवैकुण्ठपुराधिप: ।।

पूर्णानन्दघनीभूतो गोपवेषधरो हरि: ।
कलापकुसुमश्याम: कोमल: शान्तविग्रह: ।।

गोपाड़्गनावृतोsनन्तो वृन्दावनसमाश्रय: ।
वेणुवादरत: श्रेष्ठो देवानां हितकारक: ।।

बालक्रीडासमासक्तो नवनीतस्यं तस्कर: ।
गोपालकामिनीजारश्चोरजारशिखामणि: ।।

परंज्योति: पराकाश: परावास: परिस्फुट: ।
अष्टादशाक्षरो मन्त्रो व्यापको लोकपावन: ।।

सप्तकोटिमहामन्त्रशेखरो देवशेखर: ।
विज्ञानज्ञानसन्धानस्तेजोराशिर्जगत्पति: ।।

भक्तलोकप्रसन्नात्मा भक्तमन्दारविग्रह: ।
भक्तदारिद्रयदमनो भक्तानां प्रीतिदायक: ।।

भक्ताधीनमना: पूज्यो भक्तलोकशिवंकर: ।
भक्ताभीष्टप्रद: सर्वभक्ताघौघनिकृन्तन: ।।

अपारकरुणासिन्धुर्भगवान भक्ततत्पर: ।।
इति श्रीराधिकानाथसहस्त्रं नाम कीर्तितम ।

स्मरणात्पापराशीनां खण्डनं मृत्युनाशनम ।।
वैष्णवानां प्रियकरं महारोगनिवारणम ।

ब्रह्महत्यासुरापानं परस्त्रीगमनं तथा ।|
परद्रव्यापहरणं परद्वेषसमन्वितम ।

मानसं वाचिकं कायं यत्पापं पापसम्भवम ।।
सहस्त्रनामपठनात्सर्व नश्यति तत्क्षणात ।

महादारिद्र्ययुक्तो यो वैष्णवो विष्णुभक्तिमान ।।
कार्तिक्यां सम्पठेद्रात्रौ शतमष्टोत्तर क्रमात ।

पीताम्बरधरो धीमासुगन्धिपुष्पचन्दनै: ।।
पुस्तकं पूजयित्वा तु नैवेद्यादिभिरेव च ।
राधाध्यानाड़िकतो धीरो वनमालाविभूषित: ।।

शतमष्टोत्तरं देवि पठेन्नामसहस्त्रकम ।
चैत्रशुक्ले च कृष्णे च कुहूसंक्रान्तिवासरे ।।

पठितव्यं प्रयत्नेन त्रौलोक्यं मोहयेत्क्षणात ।
तुलसीमालया युक्तो वैष्णवो भक्तित्पर: ।।

रविवारे च शुक्रे च द्वादश्यां श्राद्धवासरे ।
ब्राह्मणं पूजयित्वा च भोजयित्वा विधानत: ।।

पठेन्नामसहस्त्रं च तत: सिद्धि: प्रजायते ।
महानिशायां सततं वैष्णवो य: पठेत्सदा ।।

देशान्तरगता लक्ष्मी: समायातिं न संशय: ।
त्रैलोक्ये च महादेवि सुन्दर्य: काममोहिता: ।।

मुग्धा: स्वयं समायान्ति वैष्णवं च भजन्ति ता: ।
रोगी रोगात्प्रमुच्येत बद्धो मुच्येत बन्धनात ।।

गुर्विणी जनयेत्पुत्रं कन्या विन्दति सत्पतिम् ।
राजानो वश्यतां यान्ति किं पुन: क्षुद्रमानवा: ।।
सहस्त्रनामश्रवणात्पठनात्पूजनात्प्रिये ।

धारणात्सर्वमाप्नोति वैष्णवो नात्र संशय: ।।
वंशीतटे चान्यवटे तथा पिप्पलकेsथवा ।

कदम्बपादपतले गोपालमूर्तिसन्निधौ ।।
य: पठेद्वैष्णवो नित्यं स याति हरिमन्दिरम ।

कृष्णेनोक्तं राधिकायै मया प्रोक्तं पुरा शिवे ।।
नारदाय मया प्रोक्तं नारदेन प्रकाशितम् ।

मया त्वयि वरारोहे प्रोक्तमेतत्सुदुर्लभम् ।।

गोपनीयं प्रयत्नेन् न प्रकाश्यं कथंचन ।
शठाय पापिने चैव लम्पटाय विशेषत: ।।

न दातव्यं न दातव्यं न दात्व्यं कदाचन ।
देयं शिष्याय शान्ताय विष्णुभक्तिरताय च ।।

गोदानब्रह्मयज्ञादेर्वाजपेयशस्य च ।
अश्वमेधसहस्त्रस्य फलं पाठे भवेदध्रुवम् ।।

मोहनं स्तम्भनं चैव मारणोच्चाटनादिकम ।
यद्यद्वांछति चित्तेन तत्तत्प्राप्नोति वैष्णव: ।।

एकादश्यां नर: स्नात्वा सुगन्धिद्रव्यतैलकै: ।
आहारं ब्राह्मणे दत्त्वा दक्षिणां स्वर्णभूषणम् ।।

तत आरम्भकर्ताsसौ सर्व प्राप्नोति मानव: ।
शतावृत्तं सहस्त्रं च य: पठेद्वैष्णवो जन: ।।

श्रीवृंदावनचन्द्रस्य प्रासादात्सर्वमाप्नुयात ।
यदगृहे पुस्तकं देवि पूजितं चैव तिष्ठति ।।

न मारी न च दुर्भिक्षं नोपसर्गभयं क्वचित ।
सर्पादि भूतयक्षाद्या नश्यन्ति नात्र संशय: ।।

श्रीगोपालो महादेवि वसेत्तस्य गृहे सदा ।
गृहे यत्र सहस्त्रं च नाम्नां तिष्ठति पूजितम् ।।

शिव तांडव स्तोत्रम्

अप्रैल 20, 2025 0

शिव तांडव स्तोत्रम् भगवान शिव की आराधना का अत्यंत प्रभावशाली और शक्तिशाली स्तोत्र है, जिसे रावण ने रचा था। यह स्तोत्र शिवजी के तांडव नृत्य, उनके रूप, शक्ति और तेज का वर्णन करता है। रोज़ इसका पाठ करने से साधक के भीतर शिवतत्त्व जाग्रत होता है।


जटा टवी गलज्जल प्रवाह पावितस्थले
गलेऽव लम्ब्य लम्बितां भुजङ्ग तुङ्ग मालिकाम्।
डमड्ड डमड्ड डमड्ड मन्निनाद वड्डमर्वयं
चकार चण्ड ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्॥

जटा कटाह संभ्रम भ्रमन्निलिम्प निर्झरी
विलोल वीचिवल्लरी विराजमान मूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्ट पावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम॥

धराधरेन्द्र नन्दिनी विलासबन्धु बन्धुर
स्फुरद्दिगन्त सन्तति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटाक्ष धोरणी निरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि॥

जटा भुजङ्ग पिङ्गल स्फुरत्फणामणिप्रभा
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि॥

सहस्रलोचन प्रभृत्यशेषलेखशेखर
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटकः
श्रियै चिराय जायतां चकोर बन्धुशेखरः॥

ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा
निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालिसम्पदेशिरोजटालमस्तु नः॥

करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल
धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके।
धराधरेन्द्रनन्दिनी कुचाग्रचित्रपत्रक
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम॥

नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत्
कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं मम॥

स्फुरत्करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्वल
द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके।
धराधरेन्द्रनन्दिनी कुचाग्रचित्रपत्रक
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम॥

प्रहृष्णिकण्ठकन्धरा विलोलवीचिवल्लरी
धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधु बंधुरस्फुरद्र्तल्पक्षत प्रगल्भनील पङ्कजे।
निलिम्प निर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरं
जगज्जयाय जायतां चकोर बन्धुशेखरः॥

इति स्तुवन्ति योऽनित्यं शम्भवमात्मसंस्थितम्
कथञ्चितात्मनः शरीरमस्तमेत सुष्ठु त।
न तद्गिरौ चिरायुतं सुसंवृतं हि तद्वभूत
वसन्नुमदभृश्णिके निलिम्प निर्झरीधरः

॥ इति शिव तांडव स्तोत्रम् समाप्तम् ॥

शनिवार, 19 अप्रैल 2025

श्री सत्यनारायण व्रत कथा

अप्रैल 19, 2025 0


सत्यनारायण कथा के महत्व

सत्यनारायण कथा का श्रवण करने से अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। यह न केवल धार्मिक
 दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि मानसिक और भौतिक सुख-शांति के लिए भी अत्यंत लाभकारी है। कुछ प्रमुख लाभइस प्रकार हैं:
समस्या का समाधान: सत्यनारायण कथा को श्रद्धा पूर्वक सुनने से जीवन की 
तमाम समस्याओं का समाधान होता है। कठिनाइयाँ कम होती हैं और व्यक्ति को सही दिशा मिलती है।
धन-धान्य की प्राप्ति: इस कथा का नियमित रूप से वाचन करने से घर में सुख-समृद्धि का वास होता है। व्यक्ति की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है और धन का आगमन होता है।
मानसिक शांति: सत्यनारायण भगवान की पूजा और कथा से मानसिक शांति मिलती है। यह तनाव और मानसिक अशांति को दूर करती है।
सच्चाई की शक्ति: सत्य बोलने और सच के मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है, जिससे जीवन में नैतिक और आत्मिक उन्नति होती है।
भगवान की कृपा: कथा में भगवान सत्यनारायण की कृपा की महिमा को बताया गया है, जिससे भक्तों को भगवान के आशीर्वाद से जीवन में सुख, शांति और सफलता मिलती है

प्रथम अध्याय

एक समय की बात है — नैमिषारण्य तीर्थ में शौनकादि अठ्ठासी हजार ऋषियों ने सूतजी से प्रश्न किया,
"हे प्रभु! इस कलियुग में, जब लोग वेदविद्या से दूर होते जा रहे हैं, ऐसे मनुष्यों को भगवान की भक्ति किस प्रकार प्राप्त हो सकती है? और उनका उद्धार कैसे होगा?
कृपया ऐसा कोई तप बताइए जिससे थोड़े समय में पुण्य और मनवांछित फल प्राप्त हो।"

सर्वशास्त्रज्ञ सूतजी बोले —
"हे वैष्णवों में श्रेष्ठ! आपने प्राणियों के हित की बात पूछी है। इसलिए मैं आपको एक श्रेष्ठ व्रत की कथा सुनाता हूँ जिसे स्वयं नारदजी ने लक्ष्मीनारायणजी से पूछा था।
लक्ष्मीपति नारायणजी ने नारदजी से कहा — ध्यानपूर्वक सुनिए।"

एक बार नारदजी, दूसरों के कल्याण की इच्छा से अनेक लोकों में भ्रमण करते हुए मृत्युलोक में आए।
यहाँ उन्होंने देखा कि मनुष्य विभिन्न योनियों में जन्म लेकर अपने कर्मों के फलस्वरूप अनेक दुःख भोग रहे हैं।
यह देखकर नारदजी सोचने लगे, "कोई ऐसा उपाय हो जिससे इन प्राणियों के दुःखों का अंत हो।"

यह विचार कर वे विष्णुलोक पहुंचे और भगवान विष्णु की स्तुति करने लगे।
विष्णु भगवान — जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म थे, गले में वैजयंती माला सुशोभित थी — नारदजी की स्तुति से प्रसन्न होकर बोले —
"हे मुनिश्रेष्ठ! बताइए, किस कार्य के लिए पधारे हैं?"

नारदजी बोले —
"हे भगवन्! मृत्युलोक में मनुष्य अपने कर्मों से दुखी हैं। कृपा करके कोई सरल उपाय बताइए जिससे वे दुःखों से मुक्त हो सकें।"

भगवान विष्णु बोले —
"हे नारद! यह प्रश्न बहुत हितकारी है। सुनो —
स्वर्ग और मृत्युलोक में एक अत्यंत पुण्यदायक श्रेष्ठ व्रत है — श्री सत्यनारायण व्रत।
जो श्रद्धा और भक्ति से इस व्रत को करता है, वह मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त करता है और जीवित रहते सुख भोगता है।"

नारदजी ने पूछा —
"हे प्रभो! इस व्रत का विधान क्या है? इसे किस दिन करना चाहिए? इसके करने से क्या फल मिलता है?"

श्रीहरि बोले —
"यह व्रत दुख, शोक और दरिद्रता को दूर करने वाला तथा विजय दिलाने वाला है।
इसे सायंकाल ब्राह्मणों और बंधु-बांधवों के साथ धर्मपूर्वक करना चाहिए।
भक्ति भाव से केले का फल, घी, दूध, गेहूँ का आटा (या साठी का आटा), शक्कर, गुड़ और भक्षण योग्य पदार्थों से नैवेद्य तैयार करना चाहिए।
भगवान को भोग अर्पित कर, ब्राह्मणों व बंधु-बांधवों को भोजन कराएं।
उसके बाद स्वयं भोजन करें और भजन-कीर्तन के साथ भगवान की भक्ति में लीन हो जाएं।
इस प्रकार सत्यनारायण व्रत करने से मनुष्य की सारी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं।
कलियुग में मोक्ष का यही सरल उपाय है।"

॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा प्रथम अध्याय संपूर्ण ॥


द्वितीय अध्याय

सूतजी बोले —
"हे ऋषियों! अब मैं आपको बताता हूँ कि पहले किसने इस व्रत को किया था।"

काशीपुरी नगरी में एक निर्धन ब्राह्मण रहता था, जो भूख-प्यास से व्याकुल होकर भिक्षा के लिए भटकता था।
भगवान सत्यनारायण ने वृद्ध ब्राह्मण का वेश धरकर उसके पास जाकर पूछा —
"हे विप्र! आप इतने दुखी होकर पृथ्वी पर क्यों घूमते हैं?"

ब्राह्मण बोला —
"मैं अत्यंत निर्धन हूँ। कृपया कोई उपाय बताइए।"

वृद्ध ब्राह्मण बोले —
"श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत करो। यह व्रत सभी दुखों का नाश करता है और मनवांछित फल देता है।"

इतना कहकर भगवान अंतर्धान हो गए।
ब्राह्मण ने निश्चय किया कि वह इस व्रत को अवश्य करेगा।
भिक्षा में उसी दिन उसे पर्याप्त धन मिला।
उसने बंधु-बांधवों के साथ मिलकर विधिपूर्वक व्रत किया।
व्रत के प्रभाव से वह निर्धन ब्राह्मण धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।

सूतजी बोले —
"जो भी इस व्रत को करेगा, वह पापों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करेगा।"

ऋषियों ने फिर पूछा —
"हे मुनिवर! इसके बाद और किस-किसने इस व्रत को किया?"

सूतजी बोले —
"सुनो!"

वही ब्राह्मण जब एक बार व्रत कर रहा था, तभी एक लकड़हारा आया।
ब्राह्मण ने उसे सत्यनारायण व्रत के बारे में बताया।
लकड़हारा प्रसन्न हुआ और प्रण किया कि लकड़ी बेचकर मिले धन से वह भी व्रत करेगा।

उस दिन लकड़ियों का मूल्य चार गुना अधिक मिला।
लकड़हारे ने आवश्यक सामग्री खरीदकर बंधु-बांधवों के साथ व्रत संपन्न किया।
व्रत के प्रभाव से वह भी धन, पुत्र आदि से युक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हुआ।

॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा द्वितीय अध्याय संपूर्ण ॥


तृतीय अध्याय

सूतजी बोले —
"अब आगे की कथा कहता हूँ।"

प्राचीनकाल में उल्कामुख नामक एक राजा था, जो सत्यवादी और जितेन्द्रिय था।
वह प्रतिदिन देवस्थलों पर जाता और निर्धनों को दान देता था।
भद्रशीला नदी के तट पर उसने अपनी पत्नी के साथ श्रीसत्यनारायण व्रत किया।

उसी समय साधु नाम का एक वैश्य आया।
व्रत को देखकर उसने राजा से पूछा —
"हे राजन! आप यह क्या कर रहे हैं?"

राजा ने बताया —
"हम पुत्रादि की प्राप्ति हेतु श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत कर रहे हैं।"

साधु वैश्य ने भी व्रत का संकल्प किया और अपनी पत्नी लीलावती से कहा —
"संतान होने पर हम व्रत करेंगे।"

कालांतर में लीलावती गर्भवती हुई और एक सुंदर कन्या कलावती का जन्म हुआ।
कलावती धीरे-धीरे बड़ी हुई।
एक दिन साधु ने कन्या के विवाह हेतु योग्य वर खोजा और कन्या का विवाह कर दिया, परंतु अभी तक व्रत नहीं किया।

भगवान सत्यनारायण क्रोधित हुए।
साधु जब अपनी पुत्री-दामाद के साथ व्यापार हेतु समुद्र किनारे गया, तभी भगवान की माया से वह चोरी के झूठे आरोप में फंसा और उसे कारावास हो गया।
उधर घर में चोरों ने सारा धन चुरा लिया। साधु की पत्नी लीलावती और पुत्री कलावती अत्यंत दुःखी हो गईं।

कलावती एक दिन एक ब्राह्मण के घर सत्यनारायण व्रत होते देखकर प्रसाद लाई और माता से सब कहा।
लीलावती ने भी विधिपूर्वक व्रत किया और भगवान से प्रार्थना की।

भगवान सत्यनारायण प्रसन्न हुए।
उन्होंने चन्द्रकेतु राजा को स्वप्न में आदेश दिया कि साधु और उसके दामाद को छोड़ दे और उनका धन लौटाए।
राजा ने वैसा ही किया। साधु अपने घर लौट आया।

॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा तृतीय अध्याय संपूर्ण ॥


चतुर्थ अध्याय

सूतजी बोले —
"अब आगे की कथा सुनिए।"

साधु वैश्य ने प्रसन्न होकर अपने नगर को यात्रा शुरू की।
रास्ते में श्रीसत्यनारायण भगवान ने दण्डी के वेश में उससे पूछा —
"हे साधु! तेरी नाव में क्या है?"

साधु ने उपहासपूर्वक उत्तर दिया —
"मेरी नाव में तो बेल-पत्ते हैं।"

भगवान ने कहा —
"जैसा कहा, वैसा ही हो।"

साधु ने जब नाव खोली तो उसमें वास्तव में बेल-पत्ते ही थे।
वह अत्यंत दुःखी हो गया।
दामाद ने सलाह दी कि दण्डी के पास जाकर क्षमा मांगे।
दोनों ने भगवान से क्षमा याचना की।

भगवान सत्यनारायण प्रसन्न हुए।
उन्होंने नाव को पुनः धन-रत्नों से भर दिया।
साधु वैश्य ने अपने नगर लौटकर बड़े धूमधाम से व्रत किया।
इस प्रकार भगवान की कृपा से उसे अपार सुख और मोक्ष की प्राप्ति हुई।

॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा चतुर्थ अध्याय संपूर्ण ॥


पंचम अध्याय

सूतजी बोले —
"हे ऋषियों! अब मैं श्रीसत्यनारायण व्रत कथा का अंतिम अध्याय कहता हूँ। ध्यानपूर्वक सुनिए।"

एक समय नंद ग्राम में एक निर्धन एवं धर्मपरायण राजा अंगिरस राज्य करते थे।
उन्होंने भी व्रत की महिमा सुनकर, श्रद्धा से सत्यनारायण व्रत किया।
व्रत के प्रभाव से उन्हें अपार धन, सुख और संतति की प्राप्ति हुई।

इसी प्रकार जो भी मनुष्य श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से इस व्रत को करता है, उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।
जो व्रत कथा को सुनता या सुनाता है, वह जीवन में सुख, संपत्ति, पुत्र, पौत्र आदि से सम्पन्न होकर अंत में विष्णुलोक को प्राप्त होता है।

इस व्रत में विशेष ध्यान देना चाहिए कि व्रत के दिन वाणी, मन और कर्म से पवित्र रहें।
व्रत समाप्ति के बाद ब्राह्मणों को भोजन कराएं, उन्हें दक्षिणा दें और फिर स्वयं भोजन करें।
इस प्रकार विधिपूर्वक सत्यनारायण व्रत करने से मनुष्य की सभी कामनाएँ पूर्ण होती हैं।

श्रीसत्यनारायण व्रत कथा को सुनने से घर में आनंद, सुख-शांति और कल्याण की वृद्धि होती है।
जो श्रद्धा से भगवान का नाम लेता है, वह संसार सागर से तर जाता है।

इस व्रत के प्रभाव से व्यक्ति को दीर्घायु, आरोग्य और सभी मनोरथों की सिद्धि होती है।
जो हर माह पूर्णिमा को, अथवा विशेष शुभ अवसरों पर, इस व्रत को करता है, वह इस जीवन में ही स्वर्गीय सुखों का अनुभव करता है।

सूतजी बोले —
"हे महर्षियो! मैंने आप सबको श्रीसत्यनारायण व्रत कथा सुनाई।
जो भक्तिपूर्वक इस कथा का श्रवण या वाचन करता है, वह समस्त दुखों से मुक्त होकर अंत में भगवान के धाम को प्राप्त होता है।"

सर्वे जनाः सुखिनः भवन्तु।

॥ इति श्रीसत्यनारायण व्रतकथा पंचम अध्याय संपूर्ण ॥



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