Contact Us

LightBlog
LightBlog

मंगलवार, 15 अप्रैल 2025

रामकृष्ण परमहंस की जीवन- एक जीवन, अनेक मार्ग अमर कहानी

अप्रैल 15, 2025 0

1. बाल्यकाल: सरलता में ही गहराई थी

रामकृष्ण परमहंस का जन्म 18 फरवरी 1836 को पश्चिम बंगाल के कामारपुकुर गाँव में हुआ था। उनका बचपन का नाम "गदाधर चट्टोपाध्याय" था। वह एक अत्यंत सरल, हँसमुख और अत्यंत संवेदनशील बालक थे। जब अन्य बालक खेलते थे, तो गदाधर प्रकृति की गोद में बैठकर पक्षियों की चहचहाहट, बादलों की गड़गड़ाहट और नदियों के बहाव में ईश्वर की झलक खोजा करते थे। उन्हें संगीत और धार्मिक कथाओं से विशेष लगाव था।

एक बार गाँव में रामलीला हो रही थी, और जब राम वनवास को जा रहे थे, तब गदाधर इतने भावविभोर हो गए कि रोने लगे। यह दिखाता है कि उनकी आत्मा बचपन से ही ईश्वर में डूबी हुई थी।


2. दक्ष‍िणेश्वर का आगमन: साधना की शुरुआत

जैसे-जैसे वह बड़े हुए, उनकी आध्यात्मिक प्यास बढ़ती गई। 1855 में, उनके बड़े भाई रामकुमार कोलकाता के पास स्थित दक्षिणेश्वर काली मंदिर में पुजारी बने। रामकृष्ण भी वहाँ पहुँचे और कुछ समय बाद स्वयं माँ काली के पुजारी बने।

यहाँ से उनकी असाधारण साधना की यात्रा शुरू हुई। वह माँ काली के प्रति इतने समर्पित हो गए कि साधना करते-करते उनके शरीर की सुध-बुध तक चली जाती थी। उन्होंने माँ काली को साक्षात् रूप में देखने की लालसा में दिन-रात तप किया। यहाँ तक कि एक दिन वह आत्महत्या तक के लिए तैयार हो गए क्योंकि उन्हें माँ के दर्शन नहीं हो रहे थे। तभी माँ काली ने उन्हें साक्षात् दर्शन दिए। यह अनुभव उनकी साधना का चरम बिंदु था।


3. अद्वैत अनुभव: सब एक ही है

रामकृष्ण परमहंस केवल एक देवी या धर्म तक सीमित नहीं रहे। उन्होंने यह जानने की कोशिश की कि क्या ईश्वर केवल माँ काली में ही हैं? इसके लिए उन्होंने विभिन्न पंथों की साधना की — भक्ति योग, ज्ञान योग, तंत्र साधना, वैष्णव भक्ति, यहाँ तक कि इस्लाम और ईसाई धर्म की साधना भी की।

उन्होंने यह सिद्ध किया कि "सभी धर्म एक ही परम सत्य की ओर जाने के अलग-अलग मार्ग हैं।" उन्हें अनुभव हुआ कि जिस रूप में भी कोई सच्चे ह्रदय से ईश्वर की खोज करता है, उसे वही परम सत्य मिलता है। यह उनके जीवन का सबसे बड़ा संदेश था — "जतो मते, ततो पथ" — जितने मत, उतने मार्ग।


4. उनका जीवन: एक जीती-जागती आध्यात्मिक प्रयोगशाला

रामकृष्ण परमहंस का जीवन किसी ग्रंथ से कम नहीं था। वे शिक्षाएं देने के लिए बड़े-बड़े भाषण नहीं देते थे, बल्कि वे अपनी सादगी, प्रेम और सरल दृष्टांतों से लोगों का हृदय जीत लेते थे।

उनका मुख्य साधन था भाव — एक गहरे प्रेम और समर्पण का भाव। वे कहते थे, "ईश्वर को पाने के लिए रोओ जैसे एक बच्चा अपनी माँ के लिए रोता है। माँ को अंततः आना ही पड़ता है।"

उनकी एक और विशेषता थी कि वे कभी किसी पथ का विरोध नहीं करते थे। चाहे कोई सन्यासी हो या गृहस्थ, भक्त हो या नास्तिक — वे हर किसी को प्रेमपूर्वक मार्गदर्शन देते थे।


5. नरेंद्र से विवेकानंद तक

रामकृष्ण परमहंस का जीवन एक अध्याय है, पर उनका सबसे बड़ा योगदान था स्वामी विवेकानंद को तैयार करना। नरेंद्रनाथ दत्त, एक तार्किक और प्रश्नवाचक युवक, जब पहली बार रामकृष्ण से मिले, तो उन्होंने सीधा प्रश्न किया — "क्या आपने ईश्वर को देखा है?"

रामकृष्ण ने तुरंत उत्तर दिया, "हाँ, जैसे मैं तुम्हें देख रहा हूँ वैसे ही मैंने ईश्वर को देखा है।"

इस उत्तर ने नरेंद्र को चौंका दिया और धीरे-धीरे वह उनके निकट आते गए। रामकृष्ण ने नरेंद्र को आत्मबोध कराया, सेवा का महत्त्व बताया और अंततः विवेकानंद बना दिया — वह प्रकाशपुंज जिसने भारत को और दुनिया को आध्यात्मिकता की नई दिशा दी।


6. अंतिम दिन: शरीर गया, पर भाव अमर रहा

1886 में रामकृष्ण परमहंस ने अपने सांसारिक जीवन को त्याग दिया। वह गले के कैंसर से पीड़ित थे, लेकिन फिर भी उनका ह्रदय आनंद से भरा रहता था। मृत्यु के अंतिम क्षणों में भी वे मुस्कुराते रहे।

उन्होंने अपने शिष्यों से कहा था, "मैं मरने नहीं जा रहा हूँ, मैं केवल देह को त्याग रहा हूँ। जब भी तुम मुझे याद करोगे, मैं तुम्हारे पास रहूँगा।"

उनकी यह भविष्यवाणी सच साबित हुई — आज भी रामकृष्ण परमहंस करोड़ों लोगों के हृदय में जीवित हैं।


7. उपसंहार: रामकृष्ण की अमर वाणी

रामकृष्ण परमहंस का जीवन इस बात का प्रमाण है कि सच्ची भक्ति, सरलता, और निष्कलंक प्रेम के साथ भी ईश्वर को पाया जा सकता है। वे कहते थे:

  • "ईश्वर के अनेक नाम हैं और मार्ग भी अनेक हैं, पर लक्ष्य एक ही है।"

  • "जो लोग ईश्वर को नहीं मानते, उनके भीतर भी वही ईश्वर छिपा है।"

  • "जैसे एक तालाब के कई किनारे होते हैं, वैसे ही धर्म के अलग-अलग रूप होते हैं — पर जल एक ही है।"

रामकृष्ण परमहंस का जीवन केवल एक संत की कहानी नहीं, बल्कि वह एक चेतना है, जो यह सिखाती है — "ईश्वर को पाने के लिए किसी बड़े ग्रंथ या जटिल साधना की नहीं, केवल निर्मल ह्रदय और सच्चे प्रेम की जरूरत है।"

डॉ. भीमराव अंबेडकर : समाज, अर्थव्यवस्था की विचार कि क्रांति"

अप्रैल 15, 2025 0

डॉ. भीमराव अंबेडकर का जीवन – परिचय

1. जन्म और प्रारंभिक जीवन
डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के महू (अब डॉ. अंबेडकर नगर) में एक गरीब और दलित परिवार में हुआ था। वे महार जाति से थे, जिसे उस समय समाज में अछूत माना जाता था। उनका पूरा नाम भीमराव रामजी अंबेडकर था। बचपन से ही उन्होंने जातिगत भेदभाव का दर्द झेला, स्कूल में अलग बैठाया जाता, पानी पीने की अनुमति नहीं दी जाती। लेकिन उन्होंने शिक्षा को अपना हथियार बनाया।


2. शिक्षा के प्रति संघर्ष
भीमराव बचपन से ही पढ़ने में बहुत होशियार थे। उनके पिता रामजी सकपाल ने उन्हें शिक्षा दिलाने के लिए कठिन मेहनत की। अंबेडकर ने हाईस्कूल की परीक्षा 1907 में पास की, जो उस समय किसी दलित के लिए बहुत बड़ी बात थी। बाद में वे एलफिंस्टन कॉलेज में दाखिल हुए और फिर उन्होंने बड़ौदा महाराजा की छात्रवृत्ति से अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की।


3. विदेश में शिक्षा और उपलब्धियाँ
अंबेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र, राजनीति और समाजशास्त्र में उच्च शिक्षा प्राप्त की। फिर वे लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स गए, जहाँ उन्होंने D.Sc. की डिग्री प्राप्त की। उन्होंने कानून की भी पढ़ाई की और बैरिस्टर बने। विदेश में उन्हें किसी प्रकार का जातीय भेदभाव नहीं झेलना पड़ा, जिससे उन्होंने जाना कि सामाजिक बराबरी संभव है – यदि समाज सही दिशा में जाए।


4. भारत वापसी और सामाजिक संघर्ष की शुरुआत
1923 में भारत लौटने पर, डॉ. अंबेडकर ने देखा कि भारत में अभी भी दलितों के साथ अत्याचार हो रहा है। उन्होंने इसके खिलाफ आवाज उठाने का फैसला किया। उन्होंने कहा, “शिक्षित बनो, संघर्ष करो, संगठित हो।” उन्होंने कई आंदोलनों की शुरुआत की – जैसे महाड़ सत्याग्रह (1927), जहाँ उन्होंने सार्वजनिक जलस्रोतों पर दलितों का अधिकार दिलाने के लिए आंदोलन किया।



5. अस्पृश्यता के खिलाफ आंदोलन
डॉ. अंबेडकर ने छुआछूत को खत्म करने के लिए अपने जीवन का हर क्षण समर्पित कर दिया। उन्होंने ‘बहिष्कृत भारत’ और ‘जनता’ जैसे समाचार पत्रों की शुरुआत की, जिससे दबे-कुचले वर्ग की आवाज उठाई जा सके। उन्होंने न केवल समाज को जगाने का प्रयास किया, बल्कि कानून और नीति के माध्यम से बदलाव लाने की कोशिश की।


6. पूना समझौता और गांधी जी के साथ संवाद
1932 में डॉ. अंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच 'पूना समझौता' हुआ। अंबेडकर चाहते थे कि दलितों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिले और अलग निर्वाचक मंडल बनाया जाए, जबकि गांधीजी इसके खिलाफ थे। बाद में समझौता हुआ कि दलितों को आरक्षित सीटें मिलेंगी, पर अलग निर्वाचन मंडल नहीं होगा। यह ऐतिहासिक घटना थी जिसने भारत के चुनावी ढांचे को प्रभावित किया।


7. संविधान निर्माण में भूमिका
भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद, 1947 में डॉ. अंबेडकर को देश का पहला कानून मंत्री बनाया गया और संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में चुना गया। उन्होंने भारत का संविधान तैयार किया, जो दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। उन्होंने इसमें समानता, धर्मनिरपेक्षता, स्वतंत्रता, और न्याय जैसे मूल अधिकारों को शामिल किया।


8. महिलाओं और श्रमिकों के अधिकारों के लिए काम
अंबेडकर केवल दलितों के ही नहीं, बल्कि महिलाओं और श्रमिक वर्ग के भी मसीहा थे। उन्होंने महिला शिक्षा, समान अधिकार, मजदूरी, और कार्य की उचित स्थिति पर जोर दिया। उन्होंने ‘हिंदू कोड बिल’ का प्रस्ताव रखा जो महिलाओं को संपत्ति और विवाह में बराबरी देता था। हालांकि इस बिल को उस समय पास नहीं किया गया, लेकिन यह आज भी महिलाओं के अधिकारों की नींव है।


9. बौद्ध धर्म की ओर झुकाव
डॉ. अंबेडकर ने देखा कि हिंदू समाज में छुआछूत और जातिवाद जड़ से नहीं हटाया जा सकता। उन्होंने कहा, “मैं हिंदू के रूप में जन्मा जरूर हूं, लेकिन मरूंगा नहीं।” उन्होंने बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन किया और 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया। उन्होंने "धम्म चक्र प्रवर्तन" किया और लोगों को शांति, समता और करुणा के मार्ग पर चलने को प्रेरित किया।


10. लेखन और बौद्धिक योगदान
डॉ. अंबेडकर एक महान लेखक और विचारक भी थे। उन्होंने कई प्रसिद्ध पुस्तकें लिखीं जैसे:

  • जाति का उन्मूलन

  • रुपये की समस्या

  • शूद्र कौन थे?

  • भाषायी राज्यों पर विचार

  • उनकी लेखनी में तीव्रता और समाज को बदलने की शक्ति थी।


11. निधन और अंतिम योगदान
डॉ. भीमराव अंबेडकर का निधन 6 दिसंबर 1956 को हुआ। वे जीवन भर समाज में समानता और न्याय की लड़ाई लड़ते रहे। उनके निधन के बाद लाखों लोग उनके दर्शन से जुड़े रहे। आज भी उनका नाम ‘बाबासाहेब’ के रूप में श्रद्धा और सम्मान के साथ लिया जाता है।


12. डॉ. अंबेडकर की विरासत और आज का भारत
आज डॉ. अंबेडकर केवल दलितों के ही नहीं, बल्कि पूरे भारत के महान नायक हैं। उनका संविधान आज भी भारत की रीढ़ है। भारत में सामाजिक न्याय, आरक्षण, महिला अधिकार, श्रमिक कानून – इन सबकी नींव अंबेडकर के विचारों में है। उन्हें 1990 में मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया।


निष्कर्ष
डॉ. भीमराव अंबेडकर का जीवन साहस, संघर्ष, और समर्पण की एक महान मिसाल है। उन्होंने अपने जीवन के हर क्षण को समाज में बदलाव लाने के लिए जिया। उन्होंने जातिवाद को ललकारा, कानून को बदलने की शक्ति दिखाई, और करोड़ों लोगों को आत्मसम्मान से जीना सिखाया।
उनका संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है:

"शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो।"



शुक्रवार, 11 अप्रैल 2025

श्री शनि चालीसा

अप्रैल 11, 2025 0

              दोहा

जय गणेश गिरिजा सुवन मंगल करण कृपाल ।

दीनन के दुख दूर करि कीजै नाथ निहाल ॥


जय जय श्री शनिदेव प्रभु सुनहु विनय महाराज ।

करहु कृपा हे रवि तनय राखहु जनकी लाज ॥


जयति जयति शनिदेव दयाला । करत सदा भक्तन प्रतिपाला ॥


चारि भुजा तनु श्याम विराजै । माथे रतन मुकुट छबि छाजै ॥


परम विशाल मनोहर भाला । टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला ॥


कुण्डल श्रवण चमाचम चमके । हिये माल मुक्तन मणि दमकै ॥


कर में गदा त्रिशूल कुठारा । पल बिच करैं अरिहिं संहारा ॥


पिंगल कृष्णो छाया नन्दन । यम कोणस्थ रौद्र दुख भंजन ॥


सौरी मन्द शनी दश नामा । भानु पुत्र पूजहिं सब कामा ॥


जापर प्रभु प्रसन्न हवैं जाहीं । रंकहुँ राव करैं क्शण माहीं ॥



पर्वतहू तृण होइ निहारत । तृणहू को पर्वत करि डारत ॥


राज मिलत बन रामहिं दीन्हयो । कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो ॥


बनहूँ में मृग कपट दिखाई । मातु जानकी गई चुराई ॥


लषणहिं शक्ति विकल करिडारा । मचिगा दल में हाहाकारा ॥


रावण की गति-मति बौराई । रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई ॥


दियो कीट करि कंचन लंका । बजि बजरंग बीर की डंका ॥


नृप विक्रम पर तुहिं पगु धारा । चित्र मयूर निगलि गै हारा ॥


हार नौंलखा लाग्यो चोरी । हाथ पैर डरवायो तोरी ॥


भारी दशा निकृष्ट दिखायो । तेलहिं घर कोल्हू चलवायो ॥


विनय राग दीपक महँ कीन्हयों । तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हयों ॥


हरिश्चंद्र नृप नारि बिकानी । आपहुं भरें डोम घर पानी ॥


तैसे नल पर दशा सिरानी । भूंजी-मीन कूद गई पानी ॥


श्री शंकरहिं गह्यो जब जाई । पारवती को सती कराई ॥


तनिक वोलोकत ही करि रीसा । नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा ॥


पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी । बची द्रौपदी होति उघारी ॥


कौरव के भी गति मति मारयो । युद्ध महाभारत करि डारयो ॥


रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला । लेकर कूदि परयो पाताला ॥


शेष देव-लखि विनति लाई । रवि को मुख ते दियो छुड़ाई ॥


वाहन प्रभु के सात सुजाना । जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना ॥


जम्बुक सिंह आदि नख धारी । सो फल ज्योतिष कहत पुकारी ॥


गज वाहन लक्श्मी गृह आवैं । हय ते सुख सम्पत्ति उपजावैं ॥


गर्दभ हानि करै बहु काजा । सिंह सिद्धकर राज समाजा ॥


जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डारै । मृग दे कष्ट प्राण संहारै ॥


जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी । चोरी आदि होय डर भारी ॥


तैसहि चारी चरण यह नामा । स्वर्ण लौह चाँदि अरु तामा ॥


लौह चरण पर जब प्रभु आवैं । धन जन सम्पत्ति नष्ट करावैं ॥


समता ताम्र रजत शुभकारी । स्वर्ण सर्व सुख मंगल भारी ॥


जो यह शनि चरित्र नित गावै । कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै ॥


अद्भूत नाथ दिखावैं लीला । करैं शत्रु के नशिब बलि ढीला ॥


जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई । विधिवत शनि ग्रह शांति कराई ॥


पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत । दीप दान दै बहु सुख पावत ॥


कहत राम सुन्दर प्रभु दासा । शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा ॥


दोहा

पाठ शनीश्चर देव को कीन्हों oक़् विमल cक़् तय्यार ।

करत पाठ चालीस दिन हो भवसागर पार ॥


जो स्तुति दशरथ जी कियो सम्मुख शनि निहार ।

सरस सुभाष में वही ललिता लिखें सुधार ।






श्रीनवग्रहस्तोत्रम्

अप्रैल 11, 2025 0

जपाकुसुमसङ्काशं काश्यपेयं महाद्युतिम्।

तमोऽरिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम्॥ १॥

दधिशङ्खतुषाराभं क्षीरोदार्णवसम्भवम्।
नमामि शशिनं सोमं शम्भोर्मुकुटभूषणम्॥ २॥

धरणीगर्भसम्भूतं विद्युत्कान्तिसमप्रभम्।
कुमारं शक्तिहस्तं तं मङ्गलं प्रणम्यहम्॥ ३॥

प्रियङ्गुकलिकाश्यामं रूपेणाप्रतिमं बुधम्।
सौम्यं सौम्यगुणोपेतं तं बुधं प्रणम्यहम्॥ ४॥

देवानां च ऋषीणां च गुरुं काञ्चनसन्निभम्।
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम्॥ ५॥

हिमकुन्दमृणालाभं देवनं च शुक्रमर्चितम्।
सदाशक्तिप्रभाकरं भर्गं प्रणमाम्यहम्॥ ६॥

नीलाञ्जनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥ ७॥

अर्धकायं महावीर्यं चन्द्रादित्यविमर्दनम्।
सिंहिकागर्भसम्भूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम्॥ ८॥

पलाशपुष्पसङ्काशं तारकाग्रहमस्तकम्।
रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम्॥ ९॥

इति व्यासमुखोद्गीतं यः पठेत् सुसमाहितः।
दिवा वा यदि वा रात्रौ विग्रहणिर्विणाशनम्॥ १०॥

नरनारीणां च भद्रं स्वल्पनाशनम्।
ऐश्वर्यमतुलं तेषामारोग्यं पुष्टिवर्धनम्॥ ११॥

॥ महर्षिव्यासविरचितं नवग्रहस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

गुरुवार, 10 अप्रैल 2025

॥ श्रीदुर्गा: कवचम्‌॥

अप्रैल 10, 2025 0

                                                     ॐ नमश्चण्डिकायै।


                          ॥मार्कण्डेय उवाच॥
ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्।
यन्न कस्य चिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥ 
 
                           ॥ब्रह्मोवाच॥
अस्ति गुह्यतमं विप्रा सर्वभूतोपकारकम्।
दिव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्वा महामुने॥२॥ 
 
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥३॥

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥४॥ 
 
नवमं सिद्धिदात्री च नव दुर्गाः प्रकीर्तिताः।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥५॥


अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥६॥

 

 


न तेषां जायते किञ्चिदशुभं रणसङ्कटे।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न ही॥७॥

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥८॥ 
 
प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना॥९॥

माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना।
लक्ष्मी: पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥१०॥

 


श्वेतरूपधारा देवी ईश्वरी वृषवाहना।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता॥११॥

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।
नानाभरणशोभाढया नानारत्नोपशोभिता:॥१२॥

          दृश्यन्ते रथमारूढा देव्याः क्रोधसमाकुला:।

 शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्॥१३॥

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥१४॥

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।
धारयन्त्यायुद्धानीथं देवानां च हिताय वै॥१५॥

नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥१६॥

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्रि आग्नेय्यामग्निदेवता॥१७॥

दक्षिणेऽवतु वाराही नैऋत्यां खङ्गधारिणी।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥१८॥ 
 

उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी। 

ऊर्ध्वं ब्रह्माणी में रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा॥१९॥

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहाना।
जाया मे चाग्रतः पातु: विजया पातु पृष्ठतः॥२०॥

अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता।
शिखामुद्योतिनि रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥२१॥

मालाधारी ललाटे च भ्रुवो रक्षेद् यशस्विनी।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥२२॥ 
 
शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी।
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शङ्करी ॥२३॥ 
 
नासिकायां सुगन्‍धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥२४॥

दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके॥२५॥

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद्‍ वाचं मे सर्वमङ्गला।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धारी॥२६॥

नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी।
स्कन्धयोः खङ्गिनी रक्षेद्‍ बाहू मे वज्रधारिणी॥२७॥ 
 
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चान्गुलीषु च।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी॥२८॥

 

स्तनौ रक्षेन्‍महादेवी मनः शोकविनाशिनी।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥२९॥

 

नाभौ च कामिनी रक्षेद्‍ गुह्यं गुह्येश्वरी तथा।
पूतना कामिका मेढ्रं गुडे महिषवाहिनी॥३०॥


कट्यां भगवतीं रक्षेज्जानूनी विन्ध्यवासिनी।
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी॥३१॥


गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी।
पादाङ्गुलीषु श्रीरक्षेत्पादाध:स्तलवासिनी॥३२॥

 

नखान् दंष्ट्रा कराली च केशांशचैवोर्ध्वकेशिनी।
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥३३॥



रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती।
अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी॥३४॥

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसन्धिषु॥३५॥


शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा।
अहङ्कारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥३६॥

प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥३७॥

रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी।
सत्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥३८॥

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥३९॥

गोत्रामिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्षा चण्डिके।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मी भार्यां रक्षतु भैरवी॥४०॥

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥४१॥

रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।
तत्सर्वं रक्ष मे देवी जयन्ती पापनाशिनी॥४२॥

पदमेकं न गच्छेतु यदिच्छेच्छुभमात्मनः।
कवचेनावृतो नित्यं यात्र यत्रैव गच्छति॥४३॥ 
 
तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सर्वकामिकः।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्।

परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥४४॥
निर्भयो जायते मर्त्यः सङ्ग्रमेष्वपराजितः। 
 
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्॥४५॥
इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्।

य: पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥४६॥
दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः।

जीवेद् वर्षशतं साग्रामपमृत्युविवर्जितः॥४७॥
नश्यन्ति टयाधय: सर्वे लूताविस्फोटकादयः।

स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥४८॥
अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले।

भूचराः खेचराशचैव जलजाश्चोपदेशिकाः॥४९॥ 
 सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा। 

 

अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबला॥५०॥ 
ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसा:।
 
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः॥५१॥
नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते।
 
मानोन्नतिर्भावेद्राज्यं तेजोवृद्धिकरं परम्॥५२॥ 
यशसा वद्धते सोऽपी कीर्तिमण्डितभूतले।
 
जपेत्सप्तशतीं चणण्डीं कृत्वा तु कवचं पूरा॥५३॥  

यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्।

 

तावत्तिष्ठति मेदिनयां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी॥५४॥
देहान्ते परमं स्थानं यात्सुरैरपि दुर्लभम्।
 
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥५५॥

लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते ॥ॐ॥ ॥५६॥
इति श्री देव्याः कवचं सम्पूर्णम्


मंगलवार, 8 अप्रैल 2025

श्रीहनुमानचालीसा

अप्रैल 08, 2025 0

 ॥ श्रीहनूमते नमः ॥

      श्रीहनुमानचालीसा

             दोहा

॥श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि ।

बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि ॥

॥ बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।

बल बुधि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार ॥


चौपाई

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर । जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ॥

राम दूत अतुलित बल धामा । अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा ॥

महाबीर बिक्रम बजरंगी । कुमति निवार सुमति के संगी॥

कंचन बरन बिराज सुबेसा । कानन कुंडल कुंचित केसा ॥

हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै । काँधे मूँज जनेऊ साजै ॥

संकर सुवन केसरीनंदन । तेज प्रताप महा जग बंदन ॥

बिद्यावान गुनी अति चातुर । राम काज करिबे को आतुर ॥

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया । राम लषन सीता मन बसिया ॥

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा । बिकट रूप धरि लंक जरावा ॥

भीम रूप धरि असुर सँहारे । रामचंद्र के काज सँवारे ॥

लाय सजीवन लखन जियाये । श्रीरघुबीर हरषि उर लाये ॥

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई । तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं । अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं ॥

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा । नारद सारद सहित अहीसा ॥ जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते । कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते ॥

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा । राम मिलाय राज पद दीन्हा ॥

तुम्हरो मन्त्र बिभीषन माना । लंकेस्वर भए सब जग जाना ॥

जुग सहस्र जोजन पर भानू । लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं । जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ॥

दुर्गम काज जगत के जेते । सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥

राम दुआरे तुम रखवारे । होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥

सब सुख लहै तुम्हारी सरना । तुम रच्छक काहू को डर ना ॥

आपन तेज सम्हारो आपै । तीनों लोक हाँक तें काँपै ॥

भूत पिसाच निकट नहिं आवै । महाबीर जब नाम सुनावै ॥

नासै रोग हरै सब पीरा । जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥

संकट तें हनुमान छुड़ावै । मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ॥

सब पर राम तपस्वी राजा । तिन के काज सकल तुम साजा ॥

और मनोरथ जो कोई लावै । सोइ अमित जीवन फल पावै ॥

चारों जुग परताप तुम्हारा । है परसिद्ध जगत उजियारा ॥

साधु संत के तुम रखवारे। असुर निकंदन राम दुलारे ॥

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता ॥

राम रसायन तुम्हरे पासा । सदा रहो रघुपति के दासा ॥

तुम्हरे भजन राम को पावै । जनम जनम के दुख बिसरावै ॥

अंत काल रघुबर पुर जाई । जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ॥

और देवता चित्त न धरई । हनुमत सेइ सर्ब सुख करई ॥

संकट कटै मिटै सब पीरा । जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥

जै जै जै हनुमान गोसाईं । कृपा करहु गुरु देव की नाईं ॥

जो सत बार पाठ कर कोई । छूटहि बंदि महा सुख होई॥

जो यह पढ़े हनुमान चलीसा । होय सिद्धि साखी गौरीसा॥

तुलसीदास सदा हरि चेरा । कीजै नाथ हृदय महँ डेरा ॥

दोहा

पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।

राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ॥


श्री राम चालीसा

अप्रैल 08, 2025 0

 


॥ दोहा ॥

आदौ राम तपोवनादि गमनं हत्वाह् मृगा काञ्चनं
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव संभाषणं
बाली निर्दलं समुद्र तरणं लङ्कापुरी दाहनम्
पश्चद्रावनं कुम्भकर्णं हननं एतद्धि रामायणं

॥ चौपाई ॥
श्री रघुबीर भक्त हितकारी ।
सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी ॥

निशि दिन ध्यान धरै जो कोई ।
ता सम भक्त और नहिं होई ॥

ध्यान धरे शिवजी मन माहीं ।
ब्रह्मा इन्द्र पार नहिं पाहीं ॥

जय जय जय रघुनाथ कृपाला ।
सदा करो सन्तन प्रतिपाला ॥

दूत तुम्हार वीर हनुमाना ।
जासु प्रभाव तिहूँ पुर जाना ॥

तुव भुजदण्ड प्रचण्ड कृपाला ।
रावण मारि सुरन प्रतिपाला ॥

तुम अनाथ के नाथ गोसाईं ।
दीनन के हो सदा सहाई ॥

ब्रह्मादिक तव पार न पावैं ।
सदा ईश तुम्हरो यश गावैं ॥

चारिउ वेद भरत हैं साखी ।
तुम भक्तन की लज्जा राखी ॥

गुण गावत शारद मन माहीं ।
सुरपति ताको पार न पाहीं ॥ 10 ॥

नाम तुम्हार लेत जो कोई ।
ता सम धन्य और नहिं होई ॥

राम नाम है अपरम्पारा ।
चारिहु वेदन जाहि पुकारा ॥

गणपति नाम तुम्हारो लीन्हों ।
तिनको प्रथम पूज्य तुम कीन्हों ॥

शेष रटत नित नाम तुम्हारा ।
महि को भार शीश पर धारा ॥

फूल समान रहत सो भारा ।
पावत कोउ न तुम्हरो पारा ॥

भरत नाम तुम्हरो उर धारो ।
तासों कबहुँ न रण में हारो ॥

नाम शत्रुहन हृदय प्रकाशा ।
सुमिरत होत शत्रु कर नाशा ॥

लषन तुम्हारे आज्ञाकारी ।
सदा करत सन्तन रखवारी ॥

ताते रण जीते नहिं कोई ।
युद्ध जुरे यमहूँ किन होई ॥

महा लक्ष्मी धर अवतारा ।
सब विधि करत पाप को छारा ॥ 20 ॥

सीता राम पुनीता गायो ।
भुवनेश्वरी प्रभाव दिखायो ॥

घट सों प्रकट भई सो आई ।
जाको देखत चन्द्र लजाई ॥

सो तुमरे नित पांव पलोटत ।
नवो निद्धि चरणन में लोटत ॥

सिद्धि अठारह मंगल कारी ।
सो तुम पर जावै बलिहारी ॥

औरहु जो अनेक प्रभुताई ।
सो सीतापति तुमहिं बनाई ॥

इच्छा ते कोटिन संसारा ।
रचत न लागत पल की बारा ॥

जो तुम्हरे चरनन चित लावै ।
ताको मुक्ति अवसि हो जावै ॥

सुनहु राम तुम तात हमारे ।
तुमहिं भरत कुल- पूज्य प्रचारे ॥

तुमहिं देव कुल देव हमारे ।
तुम गुरु देव प्राण के प्यारे ॥

जो कुछ हो सो तुमहीं राजा ।
जय जय जय प्रभु राखो लाजा ॥ 30 ॥

रामा आत्मा पोषण हारे ।
जय जय जय दशरथ के प्यारे ॥

जय जय जय प्रभु ज्योति स्वरूपा ।
निगुण ब्रह्म अखण्ड अनूपा ॥

सत्य सत्य जय सत्य- ब्रत स्वामी ।
सत्य सनातन अन्तर्यामी ॥

सत्य भजन तुम्हरो जो गावै ।
सो निश्चय चारों फल पावै ॥

सत्य शपथ गौरीपति कीन्हीं ।
तुमने भक्तहिं सब सिद्धि दीन्हीं ॥

ज्ञान हृदय दो ज्ञान स्वरूपा ।
नमो नमो जय जापति भूपा ॥

धन्य धन्य तुम धन्य प्रतापा ।
नाम तुम्हार हरत संतापा ॥

सत्य शुद्ध देवन मुख गाया ।
बजी दुन्दुभी शंख बजाया ॥

सत्य सत्य तुम सत्य सनातन ।
तुमहीं हो हमरे तन मन धन ॥

याको पाठ करे जो कोई ।
ज्ञान प्रकट ताके उर होई ॥ 40 ॥

आवागमन मिटै तिहि केरा ।
सत्य वचन माने शिव मेरा ॥

और आस मन में जो ल्यावै ।
तुलसी दल अरु फूल चढ़ावै ॥

साग पत्र सो भोग लगावै ।
सो नर सकल सिद्धता पावै ॥

अन्त समय रघुबर पुर जाई ।
जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई ॥

श्री हरि दास कहै अरु गावै ।
सो वैकुण्ठ धाम को पावै ॥

॥ दोहा ॥
सात दिवस जो नेम कर पाठ करे चित लाय ।
हरिदास हरिकृपा से अवसि भक्ति को पाय ॥

राम चालीसा जो पढ़े रामचरण चित लाय ।
जो इच्छा मन में करै सकल सिद्ध हो जाय ॥

LightBlog