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शनिवार, 3 मई 2025

विवेकानंद: इंडिया का पहला माइंडसेट कोच

मई 03, 2025 0
data-start="134">1. स्वामी विवेकानंद का प्रारंभिक जीवन

स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता (पूर्वी भारत) में हुआ था। उनका जन्म नाम नरेंद्रनाथ था। वे एक संपन्न परिवार में पैदा हुए थे, जहां शिक्षा और संस्कृति का बड़ा महत्व था। बचपन से ही वे बहुत जिज्ञासु और साहसी थे। उन्होंने बचपन में ही यह सवाल उठाया था कि क्या भगवान हैं? उनके मन में यह सवाल हमेशा चलता रहता था। यही जिज्ञासा उन्हें अंततः महान संत और गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस तक ले गई।नरेंद्रनाथ का व्यक्तित्व बचपन से ही बहुत गहरी सोच और शक्ति से भरा हुआ था। उनके दिमाग में हमेशा किसी महान उद्देश्य के लिए काम करने का विचार होता था। वे पूरी तरह से बौद्धिक थे, और तात्त्विक सवालों में गहरी रुचि रखते थे।


2. श्री रामकृष्ण परमहंस से मुलाकात

स्वामी विवेकानंद का जीवन उस समय बदल गया जब 1881 में उन्होंने श्री रामकृष्ण परमहंस से मुलाकात की। रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्रनाथ के आध्यात्मिक सवालों का जवाब गहरे और सरल तरीके से दिया। यह मुलाकात स्वामी विवेकानंद के जीवन का मोड़ बन गई। श्री रामकृष्ण ने उन्हें बताया कि भगवान की अनुभूति किसी किताब या पद्धति से नहीं, बल्कि आत्मा से होती है।

रामकृष्ण परमहंस के साथ बिताए गए समय ने नरेंद्रनाथ की जीवनधारा को पूरी तरह से बदल दिया। वे अब केवल एक जिज्ञासु युवा नहीं रहे, बल्कि वे अपने जीवन को साधना और सेवा के उद्देश्य से समर्पित करने का मार्ग अपनाने लगे। श्री रामकृष्ण के निर्देशन में विवेकानंद ने सन्यास लेने का निश्चय किया और वे ‘स्वामी विवेकानंद’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

3. साधु जीवन की शुरुआत

श्री रामकृष्ण परमहंस के निधन के बाद, स्वामी विवेकानंद ने संन्यास की ओर कदम बढ़ाया। उन्होंने भारत के विभिन्न हिस्सों में यात्रा की और समाज के विभिन्न तबकों से मिलकर देश की वास्तविक स्थिति का अवलोकन किया। उन्होंने देखा कि भारत में सामाजिक असमानताएं, अंधविश्वास और अज्ञानता फैली हुई थी। इसके साथ ही उन्होंने महसूस किया कि धार्मिकता और समाज सुधार दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।

स्वामी विवेकानंद का उद्देश्य केवल आध्यात्मिक उन्नति नहीं था, बल्कि उन्होंने समाज में जागरूकता और शिक्षा के प्रसार के लिए भी काम किया। उन्होंने इस दौरान बहुत सी कष्टप्रद स्थितियों का सामना किया, लेकिन उनके विश्वास और उद्देश्य ने उन्हें हर बाधा से पार पा लिया।


4. संयुक्त राज्य अमेरिका में शिकागो धर्म महासभा (1893)

स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्धि में एक महत्वपूर्ण घटना 1893 में शिकागो धर्म महासभा में भाग लेने के बाद आई। भारत के एक साधु के रूप में उनका पदार्पण पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बन गया। उन्होंने वहां अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा: "आपका भारत वह देश है जो ज्ञान, शांति और भाईचारे का प्रतीक है।"

स्वामी विवेकानंद ने वहां अपने भाषण के माध्यम से भारत की प्राचीन संस्कृति और धर्म को समस्त पश्चिमी दुनिया के सामने रखा। उन्होंने वेदों, उपनिषदों और भारतीय योग के बारे में बताया। उनका यह भाषण न केवल भारतीय संस्कृति का आदान-प्रदान था, बल्कि यह भारतीय आत्मविश्वास की पुनर्स्थापना भी था। उनके इस भाषण ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध कर दिया


5. भारत लौटने के बाद समाज सुधार की दिशा में कार्य

शिकागो धर्म महासभा के बाद स्वामी विवेकानंद भारत लौटे और उन्होंने भारतीय समाज में सुधार लाने के लिए काम शुरू किया। उनका मानना था कि भारत की असली शक्ति उसकी आत्मा में छिपी हुई है। इसके लिए उन्होंने समाज के हर तबके को जागरूक किया। वे चाहते थे कि भारत में शिक्षा का स्तर ऊंचा हो, और लोगों में आत्मविश्वास और देशभक्ति का भावना जागृत हो।

स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य था समाज सेवा, शिक्षा और आध्यात्मिक जागृति। मिशन ने न केवल धार्मिक, बल्कि सामाजिक कार्यों में भी योगदान दिया। उनका यह मिशन आज भी कई सामाजिक सेवाओं में सक्रिय है।


6. स्वामी विवेकानंद के विचार और योगदान

स्वामी विवेकानंद के विचार आज भी लोगों को प्रेरित करते हैं। उन्होंने भारतीय समाज को आत्मविश्वास, समाजसेवा और ज्ञान के महत्व के बारे में बताया। उनका आदर्श था, "उठो! जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।" स्वामी विवेकानंद ने हमेशा युवाओं को प्रेरित किया कि वे अपने जीवन का उद्देश्य खोजें और उसे प्राप्त करने के लिए निरंतर मेहनत करें।

उन्होंने कहा कि दुनिया में सबसे जरूरी चीज है आत्म-विश्वास। वे मानते थे कि आत्मविश्वास से कोई भी कठिनाई पार की जा सकती है। उनका जीवन एक उदाहरण था कि कैसे एक व्यक्ति अपनी मेहनत, विश्वास और उद्देश्य के बल पर समाज में बदलाव ला सकता है।


7. स्वामी विवेकानंद का निधन और उनकी विरासत

स्वामी विवेकानंद का निधन 39 वर्ष की आयु में 1902 में हुआ। हालांकि उनका जीवन बहुत छोटा था, लेकिन उनके द्वारा छोड़ी गई धरोहर आज भी जीवित है। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि अगर उद्देश्य स्पष्ट हो और आत्मविश्वास मजबूत हो, तो कोई भी बाधा उन्हें रोक नहीं सकती।

स्वामी विवेकानंद ने भारतीय समाज में जागरूकता, विश्वास और साहस का एक नया अध्याय जोड़ा। उनका योगदान न केवल धार्मिक था, बल्कि वे भारतीय समाज के सशक्तिकरण के लिए भी एक प्रेरणा स्रोत बने। उनका संदेश आज भी दुनियाभर में फैला हुआ है, और उनकी शिक्षा हमें अपने जीवन को एक उद्देश्यपूर्ण दिशा में आगे बढ़ाने की प्रेरणा देती है।

"उठो! जागो और तब तक मत रुको, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।"

स्वामी विवेकानंद का जीवन हमें यह सिखाता है कि आत्मविश्वास, कठिनाईयों का सामना और एक स्पष्ट उद्देश्य के साथ कोई भी ऊँचाई हासिल की जा सकती है। उनके विचार आज भी हमें प्रेरित करते हैं और समाज में बदलाव लाने के लिए जागरूक करते हैं।

"जो तुम सोच सकते हो, वह तुम कर सकते हो।"

स्वामी विवेकानंद का संदेश आज भी हमारे दिलों में गूंजता है।

शुक्रवार, 2 मई 2025

रवींद्रनाथ टैगोर —जब आत्मा गुनगुनाती है: नीर की कथा

मई 02, 2025

1. प्रस्तावना — अंधेरे में एक दीपक

शांतिनिकेतन के एक छोटे से गाँव में, जहाँ झरनों की ध्वनि और बांसों की सरसराहट कविता बनकर बहती थी, वहाँ एक वृद्ध गुरुदेव अपने कुटीर में बैठे थे। वे प्रतिदिन बच्चों को कविता, संगीत और प्रकृति की शिक्षा दिया करते। उनका नाम कोई नहीं पूछता था, सब उन्हें “गुरुजी” कहकर पुकारते थे। उस दिन, जब सूर्य पश्चिम में डूब रहा था, एक नन्हा बालक उनके द्वार पर खड़ा था — थका हुआ, भूखा, लेकिन उसकी आँखों में एक चमक थी जो गुरुजी ने तुरंत पहचान ली।            


2. बालक का नाम — “नीर”

गुरुजी ने उसका हाथ पकड़ा और अंदर ले आए। "क्या नाम है तुम्हारा, पुत्र?"
बालक ने धीमे स्वर में कहा, "नीर।"
"कहाँ से आए हो?"
"कहीं से भी नहीं, और कहीं का भी नहीं हूँ," उसने उत्तर दिया।

गुरुजी मुस्कराए। "तो तुम उस जल के समान हो, जो कहीं नहीं रुकता, पर हर जीवन को सींचता है।"


3. प्रकृति की पाठशाला

नीर ने वहीं रहना शुरू किया। गुरुजी का आश्रम कोई सामान्य विद्यालय नहीं था। वहाँ किताबों से अधिक, पेड़ सिखाते थे; वहाँ शब्दों से अधिक, मौन बोलता था। गुरुजी कहते, "शब्द ब्रह्म हैं, पर मौन आत्मा है।"

नीर घंटों तक बांस के पेड़ों के बीच बैठकर पत्तियों के साथ संवाद करता। कभी वह आकाश की ओर देखता और बादलों से बातें करता। एक दिन उसने गुरुजी से पूछा, "क्या ये बादल भी हमें सुनते हैं?"

गुरुजी ने कहा, "बिलकुल! वे वही हैं जो तुम्हारी आत्मा की ध्वनि को ब्रह्मांड तक पहुंचाते हैं।"


4. अंतर का प्रकाश

एक दिन गुरुजी ने सभी शिष्यों को एक प्रश्न दिया — “प्रकाश क्या है?”

शिष्यों ने उत्तर दिए — “सूरज”, “दीपक”, “विद्या”। पर नीर चुप रहा।

गुरुजी ने पूछा, "तुमने उत्तर क्यों नहीं दिया?"

नीर बोला, "गुरुजी, मैं प्रकाश को जानना चाहता हूँ, कहना नहीं चाहता।"

गुरुजी की आँखें भर आईं। उन्होंने नीर को अपने पास बुलाया और कहा, "तुमने उत्तर नहीं दिया, पर तुमने प्रश्न को आत्मा से छू लिया। यही तो ज्ञान है।"


5. संगीत और आत्मा

गुरुजी एक दिन रवींद्र संगीत का अभ्यास कर रहे थे — “आमार प्राणेर परोशे…” — और नीर उनके पास बैठा सुन रहा था। वह स्वर में खो गया। जब संगीत समाप्त हुआ, नीर की आँखें नम थीं।

“गुरुजी,” उसने पूछा, “ये स्वर कहाँ से आते हैं?”

गुरुजी ने कहा, “यह आत्मा के उस कोने से आता है जहाँ शब्द नहीं पहुंचते। संगीत आत्मा की भाषा है, नीर।”

नीर ने उसी दिन बाँसुरी उठाई और उसका अभ्यास आरंभ किया। वह एक आत्मा से दूसरी आत्मा तक संवाद करना चाहता था — बिना बोले।


6. विरह और बोध

वर्षों बीत गए। एक दिन नीर ने गुरुजी से कहा, “अब मुझे जाना होगा।”

गुरुजी शांत रहे। उन्होंने कहा, “हर जल को समुद्र से मिलना होता है, पर नीर, याद रखना — जो भीतर बहता है, वही बाहर बहता है।”

नीर चला गया। उसने नगर-नगर जाकर गीत गाए, कविता सुनाई, और लोगों को मौन का संदेश दिया। उसका नाम किसी किताब में नहीं था, पर उसके गीत लोगों के हृदय में गूंजते रहे।


7. गुरु का अंत और पुनर्जन्म

गुरुजी वृद्ध हो चले थे। एक दिन उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाकर कहा, “शरीर एक पतंग है, आत्मा उसकी डोर है। जब डोर परम के हाथों में आ जाती है, पतंग उड़ जाती है।”

वे शांतिनिकेतन की मिट्टी में लीन हो गए।

कुछ वर्षों बाद, उसी गाँव में एक बालक जन्मा। उसकी आँखें उसी नीर की तरह चमकती थीं। वह गीत गाता, पेड़ों से बात करता, मौन में मुस्कराता।

लोग कहते, “ये बालक पहले भी यहाँ आया था…”


8. कहानी का सार — रवींद्रनाथ की दृष्टि से

यह कहानी केवल एक बालक की नहीं है, यह हर आत्मा की यात्रा है — अज्ञान से ज्ञान की ओर, मौन से संगीत की ओर, और भटकाव से प्रकाश की ओर।

रवींद्रनाथ टैगोर की भांति इस कहानी में भी प्रकृति, आत्मा, संगीत और प्रेम एक-दूसरे से गुथे हुए हैं। जैसे गीतांजलि की पंक्तियाँ आत्मा की पुकार हैं, वैसे ही नीर की यात्रा उस अनंत की खोज है जो शब्दों से परे है।


अंतिम पंक्तियाँ (कविता रूप में):

"तू जल है, तू नीर है,
हर बूँद में ध्वनि गभीर है।
प्रकाश है तू, अंधकार में,
स्वर है तू, हर पुकार में।"


 नीर का संदेश आगे बढ़ता है, और वह लोगों के जीवन को बदल देता है। 


9. नई यात्रा की शुरुआत. प्रकृति के साथ गहरा संबंध

नीर के लिए गुरुजी का आशीर्वाद उसकी यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा था। उसने शांति निकेतन छोड़ा, लेकिन उस गाँव की मिट्टी और गुरुजी की बातें हमेशा उसके साथ थीं। उसे यह अहसास था कि अब वह केवल एक व्यक्ति नहीं था; वह एक संदेश था, एक आह्वान था जो दूसरों को जीवन की सच्चाई से परिचित कराएगा।

वह गाँव-गाँव घूमता, लोगों से मिलता, और उन्हें सिखाता — "सच्चा ज्ञान न बाहर है, न कहीं दूर, वह भीतर के गहरे अंधकार में छिपा है।"


10. नगर के लोग और नीर का संदेश

नीर जिस भी नगर में पहुँचता, वहाँ के लोग उसकी ओर आकर्षित होते। वह उन्हें समझाता कि आत्मा का शुद्ध रूप मौन है। वह उन्हें बताता, "तुम्हारी आँखें नहीं, तुम्हारी आत्मा देखती है। अपने भीतर का प्रकाश पहचानो, क्योंकि वही सच्चा प्रकाश है।"

धीरे-धीरे उसका संदेश फैलने लगा, लेकिन नीर को यह भी समझ में आया कि यह साधारण लोगों के लिए एक कठिन राह थी। दुनिया की भागदौड़, विकार, और अज्ञान उनके मन से उस शांति को छीन लेते थे जिसे नीर ने पाया था।


11. प्रकाश की ओर बढ़ता नीर

एक दिन नीर ने देखा कि एक शहर में लोग अपने शारीरिक सुखों के पीछे भागे जा रहे थे, लेकिन उनकी आत्माएँ खो चुकी थीं। उन्होंने वहाँ एक सभा का आयोजन किया। सभा में नीर ने कहा, "जो तुम खोज रहे हो, वह बाहर नहीं है, वह तुम्हारे भीतर है। यह सच्चा ज्ञान है जो तुम्हारे भीतर निहित है। केवल उसे खोजने के लिए तुम्हें खुद को जानना होगा।"

लोगों ने उसकी बातें सुनीं, कुछ समझ पाए, कुछ नहीं, लेकिन नीर को यह अहसास था कि यह एक निरंतर प्रक्रिया है, जो धीमे-धीमे सभी के हृदय में एक दीपक जला देती है।


12. समाज में बदलाव और नीर की पहचान

समाज में नीर का संदेश धीरे-धीरे फैलने लगा। गाँव-गाँव में लोग उसकी बातें करने लगे। कुछ लोग उस तक पहुँचने के लिए घंटों लंबी यात्रा करते। नीर की आँखों में एक विशेष चमक थी, जैसे वह केवल लोगों से संवाद नहीं कर रहा हो, बल्कि उनकी आत्माओं से बात कर रहा हो।

उसे यह अहसास था कि इस संसार में जो कुछ भी है, वह एक नदी की तरह बहता है, जिसमें हर किसी का अपना स्थान है, लेकिन जब सभी लोग अपनी आत्मा की धारा को पहचानते हैं, तो वे समग्र रूप से एकता का अनुभव करते हैं।


13. नीर का अंतिम आशीर्वाद

एक दिन, नीर एक छोटे से गाँव में पहुँचा जहाँ उसने देखा कि लोग एक-दूसरे से शत्रुता कर रहे थे, और समाज में बिखराव था। नीर ने वहाँ एक सभा आयोजित की और सभी को एकजुट होने का आह्वान किया। "जब तुम अपने भीतर का प्रकाश पहचानोगे, तभी तुम दूसरों का वास्तविक प्रकाश देख पाओगे," उसने कहा।

वह सभा समाप्त होते ही चुपचाप गाँव के बाहर की ओर बढ़ गया। वह जानता था कि वह जो काम शुरू कर चुका है, उसे अब हर व्यक्ति को स्वयं पूरा करना होगा। उसकी यात्रा अब पूरी हुई, लेकिन उसका संदेश और उसकी सीख हमेशा जीवित रही।


14. समाप्ति और पुनः जन्म

कुछ वर्षों बाद, नीर की उपस्थिति गाँव-गाँव, नगर-नगर में महसूस की जाने लगी। लोग कहते थे, "वह जो कहीं नहीं था, वह हर जगह था। वह जो किसी रूप में नहीं था, वह हर रूप में था।" लोग उसकी आत्मा की शांति को महसूस करते थे, और उसे हर दिशा में एक मार्गदर्शन के रूप में देखते थे।

नीर का नाम आज भी उधर के गाँवों में गूंजता था, जहाँ वह एक बार आया था, और लोगों के हृदय में उसकी यादें हमेशा जीवित थीं। उसके संदेश ने समाज को एक नई दिशा दी — एक दिशा जो प्रकाश की ओर ले जाती है, और उसी प्रकाश में हर आत्मा को अपने सत्य को पहचानने का अवसर मिलता है।


कहानी का सार:
"नीर का संदेश" यह बताता है कि सच्चा ज्ञान केवल बाहरी ढाँचों में नहीं है, बल्कि वह हर आत्मा के भीतर निहित है। नीर की यात्रा, जो एक साधारण बालक से शुरू हुई थी, अब एक जीवन-दृष्टि बन चुकी थी, जो समाज को एक नई दिशा दे रही थी — प्रेम, शांति, और आत्म-साक्षात्कार की दिशा।

नीर कोई ऐतिहासिक पात्र नहीं है, न ही रवींद्रनाथ टैगोर की असली कहानी का हिस्सा —

बल्कि वह एक काल्पनिक पात्र है, जो टैगोर के विचारों और लेखनी की प्रेरणा से जन्मा है।

सुभाष चंद्र बोस: एक आवाज़ जो मौत के बाद भी गूंजती रही

मई 02, 2025 0

1. शुरुआत एक सपने से

23 जनवरी 1897 को ओड़िशा के कटक शहर में जन्मे सुभाष चंद्र बोस का जन्म एक पढ़े-लिखे बंगाली परिवार में हुआ। उनके पिता जानकीनाथ बोस एक प्रसिद्ध वकील थे और मां प्रभावती देवी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। सुभाष बचपन से ही तेजस्वी, अनुशासित और आत्मनिर्भर थे। वे सिर्फ अच्छे विद्यार्थी ही नहीं, बल्कि अपने सिद्धांतों के लिए अडिग भी थे।


2. एक आईसीएस अफसर का इस्तीफा

सुभाष ने अंग्रेजों की सबसे प्रतिष्ठित नौकरी Indian Civil Services (ICS) की परीक्षा पास की। लेकिन अंग्रेजों की गुलामी उन्हें मंज़ूर नहीं थी। उन्होंने इस्तीफा देकर सबको चौंका दिया और अपना जीवन भारत माता की सेवा को समर्पित कर दिया।
👉 उनका कहना था: “मुझे गुलामी की नौकरी नहीं, आज़ादी की लड़ाई लड़नी है।”


3. कांग्रेस में नेताजी का उदय

सुभाष चंद्र बोस महात्मा गांधी और कांग्रेस के संपर्क में आए और आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो गए। उन्होंने 1928 में ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ के कलकत्ता अधिवेशन में जबर्दस्त भाषण देकर युवाओं को झकझोर दिया।
1938 और 1939 में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बने। लेकिन गांधीजी से उनके विचार नहीं मिलते थे — गांधीजी अहिंसा में विश्वास रखते थे, जबकि सुभाष मानते थे कि "स्वतंत्रता भीख में नहीं मिलती, उसे छीनना पड़ता है।"



4. कांग्रेस से अलग और नया रास्ता

जब गांधीजी और वरिष्ठ नेताओं ने सुभाष के क्रांतिकारी विचारों का विरोध किया, तो उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया और एक नया संगठन बनाया –
👉 “Forward Bloc” (1939)

अब उनका लक्ष्य साफ था — सीधी लड़ाई, खुला संघर्ष और आज़ादी हर हाल में।


5. जेल, नजरबंदी और साहसिक भागना

ब्रिटिश सरकार उन्हें बार-बार गिरफ्तार करती रही। 1941 में उन्हें नजरबंद कर दिया गया, लेकिन नेताजी चुप बैठने वालों में नहीं थे। उन्होंने भेष बदलकर (Pathan बनकर) भारत से भाग निकले — अफगानिस्तान, फिर रूस और आखिर में जर्मनी पहुंचे।
👉 वहां से वे जापान के सहयोग से आज़ाद हिंद फौज (INA) बनाने निकले।


6. आजाद हिंद फौज की स्थापना – “दिल्ली चलो!”

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने Japan की मदद से सिंगापुर में 'आजाद हिंद फौज' (Indian National Army – INA) की स्थापना की।
उन्होंने सैनिकों को नया नारा दिया —
👉 "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा!"
👉 "दिल्ली चलो!"

INA में महिलाओं के लिए भी अलग रेजीमेंट बनाई गई — झाँसी की रानी रेजीमेंट, जिसकी कमान कैप्टन लक्ष्मी सहगल को दी गई।


7. नेताजी की विचारधारा

सुभाष चंद्र बोस सिर्फ एक सैन्य नेता नहीं थे, वो गहरे विचारों के इंसान थे।
उनका सपना था एक स्वतंत्र, समाजवादी और वैज्ञानिक सोच वाला भारत। वे मानते थे कि:

  • जाति, धर्म और भाषा के नाम पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।

  • युवा शक्ति को राष्ट्र निर्माण में लगाना चाहिए।


8. मौत या रहस्य?

18 अगस्त 1945 को जापान से ताइवान जाते हुए नेताजी का विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और कहा गया कि उनकी मृत्यु हो गई।
लेकिन आज तक कोई प्रमाण नहीं है। लाखों भारतीयों का मानना है कि वो जिंदा थे, और किसी गुप्त आश्रम या जेल में थे।
👉 नेताजी की मृत्यु आज भी एक रहस्य है।


9. उनकी विरासत आज भी ज़िंदा है

नेताजी का योगदान सिर्फ आज़ादी तक सीमित नहीं था — उन्होंने हमें स्वाभिमानत्याग, और साहस की वो मिसाल दी जो आज भी हर भारतीय के खून में बहती है।

आज जब कोई युवा संघर्ष करता है, अपने देश के लिए कुछ करना चाहता है — तो कहीं न कहीं नेताजी के विचार उसकी प्रेरणा बनते हैं।


10. नेताजी से क्या सीखें?

सीखअर्थ
आत्मबल पर भरोसाअपनी शक्ति को पहचानो
नेतृत्वसच्चे लीडर कभी पीछे नहीं हटते
त्यागदेश के लिए सबकुछ कुर्बान किया
तेज दिमागराजनीतिक चतुराई और रणनीति में माहिर थे
हिम्मतअंग्रेजों को सीधी चुनौती दी

नमन उस महान आत्मा को

नेताजी का जीवन एक किताब है, जो हर युवा को पढ़नी चाहिए।
👉 "नेताजी चले गए, लेकिन उनकी सोच आज भी जिंदा है।"

मई 02, 2025 0

गुरुवार, 1 मई 2025

हनुमान बाहुक पाठ ।।

मई 01, 2025

श्रीगणेशाय नमः

    श्रीमद्-गोस्वामी-तुलसीदास-कृत  
 श्रीजानकीवल्लभो विजयते

सिंधु-तरन, सिय-सोच-हरन, रबि-बाल-बरन तनु।
भुज बिसाल, मूरति कराल कालहुको काल जनु।।
गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव।
जातुधान-बलवान-मान-मद-दवन पवनसुव।।

कह तुलसिदास सेवत सुलभ सेवक हित सन्तत निकट।
गुन-गनत, नमत, सुमिरत, जपत समन सकल-संकट-विकट।।1।।
स्वर्न-सैल-संकास कोटि-रबि-तरुन-तेज-घन।
उर बिसाल भुज-दंड चंड नख-बज्र बज्र-तन।।

पिंग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन।
कपिस केस, करकस लँगूर, खल-दल बल भानन।।

कह तुलसिदास बस जासु उर मारुतसुत मूरति बिकट।
संताप पाप तेहि पुरुष पहिं सपनेहुँ नहिं आवत निकट।।2।।



झूलना पंचमुख-छमुख-भृगु मुख्य भट असुर सुर, सर्व-सरि-समर समरत्थ सूरो। 
बाँकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली, बेद बंदी बदत पैजपूरो।।

                                      जासु गुनगाथ रघुनाथ कह, जासुबल, बिपुल-जल-भरित जग-जलधि झूरो।                                                                   दुवन-दल-दमनको कौन तुलसीस है, पवन को पूत रजपूत रुरो।।3।। 

                                                        घनाक्षरी

                                 भानुसों पढ़न हनुमान गये भानु मन-अनुमानि सिसु-केलि कियो फेरफार सो।                                                         पाछिले पगनि गम गगन मगन-मन, क्रम को न भ्रम, कपि बालक बिहार सो।।


कौतुक बिलोकि लोकपाल हरि हर बिधि, लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खभार सो।
बल कैंधौं बीर-रस धीरज कै, साहस कै, तुलसी सरीर धरे सबनि को सार सो।।4।।


भारत में पारथ के रथ केथू कपिराज, गाज्यो सुनि कुरुराज दल हल बल भो।
कह्यो द्रोन भीषम समीर सुत महाबीर, बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो।। 
 
बानर सुभाय बाल केलि भूमि भानु लागि, फलँग फलाँग हूँतें घाटि नभतल भो ।
नाई-नाई माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जोहैं, हनुमान देखे जगजीवन को फल भो।।5।।


गो-पद पयोधि करि होलिका ज्यों लाई लंक, निपट निसंक परपुर गलबल भो।
द्रोन-सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर, कंदुक-ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो।। 

 

संकट समाज असमंजस भो रामराज, काज जुग पूगनि को करतल पल भो।
साहसी समत्थ तुलसी को नाह जाकी बाँह, लोकपाल पालन को फिर थिर थल भो।।6।।

कमठ की पीठि जाके गोडनि की गाड़ैं मानो, नाप के भाजन भरि जल निधि जल भो।
जातुधान-दावन परावन को दुर्ग भयो, महामीन बास तिमि तोमनि को थल भो।।

                                 कुम्भकरन-रावन पयोद-नाद-ईंधन को, तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो।                                                        भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान, सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो।।7।

दूत रामराय को, सपूत पूत पौनको, तू अंजनी को नन्दन प्रताप भूरि भानु सो।
सीय-सोच-समन, दुरित दोष दमन, सरन आये अवन, लखन प्रिय प्रान सो।। 
 
दसमुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो, प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो।
ज्ञान गुनवान बलवान सेवा सावधान, साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो।।8।।

दवन-दुवन-दल भुवन-बिदित बल, बेद जस गावत बिबुध बंदीछोर को।
पाप-ताप-तिमिर तुहिन-विघटन-पटु, सेवक-सरोरुह सुखद भानु भोर को।।

                              लोक-परलोक तें बिसोक सपने न सोक, तुलसी के हिये है भरोसो एक ओर को।                                                  राम को दुलारो दास बामदेव को निवास, नाम कलि-कामतरु केसरी-किसोर को।।9।।

महाबल-सीम महाभीम महाबान इत, महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को।
कुलिस-कठोर तनु जोरपरै रोर रन, करुना-कलित मन धारमिक धीर को।।

                                     दुर्जन को कालसो कराल पाल सज्जन को, सुमिरे हरनहार तुलसी की पीर को।                                                  सीय-सुख-दायक दुलारो रघुनायक को, सेवक सहायक है साहसी समीर को।।10।।


रचिबे को बिधि जैसे, पालिबे को हरि, हर मीच मारिबे को, ज्याईबे को सुधापान भो।
धरिबे को धरनि, तरनि तम दलिबे को, सोखिबे कृसानु, पोषिबे को हिम-भानु भो।।

                            खल-दुःख दोषिबे को, जन-परितोषिबे को, माँगिबो मलीनता को मोदक सुदान भो।                                               आरत की आरति निवारिबे को तिहुँ पुर, तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो।।11।।

सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि, सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँक को।
देवी देव दानव दयावने ह्वै जोरैं हाथ, बापुरे बराक कहा और राजा राँक को।।  
         
जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद, ताके जो अनर्थ सो समर्थ एक आँक को।
सब दिन रुरो परै पूरो जहाँ-तहाँ ताहि, जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँक को।।12।।


सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि, लोकपाल सकल लखन राम जानकी।
लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि, तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी।।
 
केसरी किसोर बन्दीछोर के नेवाजे सब, कीरति बिमल कपि करुनानिधान की।
बालक-ज्यों पालिहैं कृपालु मुनि सिद्ध ताको, जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान की।।13।।

करुनानिधान, बलबुद्धि के निधान मोद-महिमा निधान, गुन-ज्ञान के निधान हौ।
बामदेव-रुप भूप राम के सनेही, नाम लेत-देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ।।

                                   आपने प्रभाव सीताराम के सुभाव सील, लोक-बेद-बिधि के बिदूष हनुमान हौ।                                                   मन की बचन की करम की तिहूँ प्रकार, तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ।।14।।


मन को अगम, तन सुगम किये कपीस, काज महाराज के समाज साज साजे हैं।
देव-बंदी छोर रनरोर केसरी किसोर, जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं।

                                बीर बरजोर, घटि जोर तुलसी की ओर, सुनि सकुचाने साधु खल गन गाजे हैं।                                                        बिगरी सँवार अंजनी कुमार कीजे मोहिं, जैसे होत आये हनुमान के निवाजे हैं।।15।।


सवैया
जान सिरोमनि हौ हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो।
ढ़ारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो।।

 

साहेब सेवक नाते तो हातो कियो सो तहाँ तुलसी को न चारो।
दोष सुनाये तें आगेहुँ को होशियार ह्वैं हों मन तौ हिय हारो।।16।।




तेरे थपे उथपै न महेस, थपै थिरको कपि जे घर घाले।
तेरे निवाजे गरीब निवाज बिराजत बैरिन के उर साले।।

 

संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरी के से जाले।
बूढ़ भये, बलि, मेरिहि बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले।।17।।


सिंधु तरे, बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवा से।
तैं रनि-केहरि केहरि के बिदले अरि-कुंजर छैल छवा से।।

 

तोसों समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से।
बानर बाज ! बढ़े खल-खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवा-से।।18।।


अच्छ-विमर्दन कानन-भानि दसानन आनन भा न निहारो।
बारिदनाद अकंपन कुंभकरन्न-से कुंजर केहरि-बारो।।

 

राम-प्रताप-हुतासन, कच्छ, बिपच्छ, समीर समीर-दुलारो।
पाप-तें साप-तें ताप तिहूँ-तें सदा तुलसी कहँ सो रखवारो।।19।।


घनाक्षरी
जानत जहान हनुमान को निवाज्यौ जन, मन अनुमानि बलि, बोल न बिसारिये।
सेवा-जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी, साहेब सुभाव कपि साहिबी सँभारिये।।

 

अपराधी जानि कीजै सासति सहस भाँति, मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये।
साहसी समीर के दुलारे रघुबीर जू के, बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये।।20।।




बालक बिलोकि, बलि बारेतें आपनो कियो, दीनबन्धु दया कीन्हीं निरुपाधि न्यारिये।
रावरो भरोसो तुलसी के, रावरोई बल, आस रावरीयै दास रावरो बिचारिये।।

 

बड़ो बिकराल कलि, काको न बिहाल कियो, माथे पगु बलि को, निहारि सो निवारिये।
केसरी किसोर, रनरोर, बरजोर बीर, बाँहुपीर राहुमातु ज्यौं पछारि मारिये।।21।।




उथपे थपनथिर थपे उथपनहार, केसरी कुमार बल आपनो सँभारिये।
राम के गुलामनि को कामतरु रामदूत, मोसे दीन दूबरे को तकिया तिहारिये।।

 

साहेब समर्थ तोसों तुलसी के माथे पर, सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये।
पोखरी बिसाल बाँहु, बलि, बारिचर पीर, मकरी ज्यौं पकरि कै बदन बिदारिये।।22।।


राम को सनेह, राम साहस लखन सिय, राम की भगति, सोच संकट निवारिये।
मुद-मरकट रोग-बारिनिधि हेरि हारे, जीव-जामवंत को भरोसो तेरो भारिये।।

 

कूदिये कृपाल तुलसी सुप्रेम-पब्बयतें, सुथल सुबेल भालू बैठि कै बिचारिये।
महाबीर बाँकुरे बराकी बाँह-पीर क्यों न, लंकिनी ज्यों लात-घात ही मरोरि मारिये।।23।।




लोक-परलोकहुँ तिलोक न बिलोकियत, तोसे समरथ चष चारिहूँ निहारिये।
कर्म, काल, लोकपाल, अग-जग जीवजाल, नाथ हाथ सब निज महिमा बिचारिये।।

 

खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर, तुलसी सो देव दुखी देखियत भारिये।
बात तरुमूल बाँहुसूल कपिकच्छु-बेलि, उपजी सकेलि कपिकेलि ही उखारिये।।24।।


करम-कराल-कंस भूमिपाल के भरोसे, बकी बकभगिनी काहू तें कहा डरैगी।
बड़ी बिकराल बाल घातिनी न जात कहि, बाँहूबल बालक छबीले छोटे छरैगी।।

 

आई है बनाइ बेष आप ही बिचारि देख, पाप जाय सबको गुनी के पाले परैगी।
पूतना पिसाचिनी ज्यौं कपिकान्ह तुलसी की, बाँहपीर महाबीर तेरे मारे मरैगी।।25।।




भालकी कि कालकी कि रोष की त्रिदोष की है, बेदन बिषम पाप ताप छल छाँह की ।
करमन कूट की कि जन्त्र मन्त्र बूट की, पराहि जाहि पापिनी मलीन मन माँह की।।

 

पैहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि, बाबरी न होहि बानि जानि कपि नाँह की।
आन हनुमान की दुहाई बलवान की, सपथ महाबीर की जो रहै पीर बाँह की।।26।।




सिंहिका सँहारि बल, सुरसा सुधारि छल, लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है।
लंक परजारि मकरी बिदारि बारबार, जातुधान धारि धूरिधानी करि डारी है।।

 

तोरि जमकातरि मंदोदरी कढ़ोरि आनी, रावन की रानी मेघनाद महँतारी है।
भीर बाँह पीर की निपट राखी महाबीर, कौन के सकोच तुलसी के सोच भारी है।।27।।


तेरो बालि केलि बीर सुनि सहमत धीर, भूलत सरीर सुधि सक्र-रबि-राहु की।
तेरी बाँह बसत बिसोक लोकपाल सब, तेरो नाम लेत रहै आरति न काहु की।।

 

साम दान भेद बिधि बेदहू लबेद सिधि, हाथ कपिनाथ ही के चोटी चोर साहु की।
आलस अनख परिहास कै सिखावन है, एते दिन रही पीर तुलसी के बाहु की।।28।।




टूकनि को घर-घर डोलत कँगाल बोलि, बाल ज्यों कृपाल नतपाल पालि पोसो है।
कीन्ही है सँभार सार अँजनी कुमार बीर, आपनो बिसारि हैं न मेरेहू भरोसो है।।

 

इतनो परेखो सब भाँति समरथ आजु, कपिराज साँची कहौं को तिलोक तोसो है।
सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास, चीरी को मरन खेल बालकनि को सो है।।29।।




आपने ही पाप तें त्रिपात तें कि साप तें, बढ़ी है बाँह बेदन कही न सहि जाति है।
औषध अनेक जन्त्र मन्त्र टोटकादि किये, बादि भये देवता मनाये अधिकाति है।।

 

करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल, को है जगजाल जो न मानत इताति है।
चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो राम दूत, ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है।।30।।




दूत राम राय को, सपूत पूत बाय को, समत्व हाथ पाय को सहाय असहाय को।
बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत, रावन सो भट भयो मुठिका के घाय को।।

 

एते बड़े साहेब समर्थ को निवाजो आज, सीदत सुसेवक बचन मन काय को।
थोरी बाँह पीर की बड़ी गलानि तुलसी को, कौन पाप कोप, लोप प्रकट प्रभाय को।।31।।




देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग, छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैं।
पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाम, राम दूत की रजाइ माथे मानि लेत हैं।।

 

घोर जन्त्र मन्त्र कूट कपट कुरोग जोग, हनुमान आन सुनि छाड़त निकेत हैं।
क्रोध कीजे कर्म को प्रबोध कीजे तुलसी को, सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत हैं।।32।।




तेरे बल बानर जिताये रन रावन सों, तेरे घाले जातुधान भये घर-घर के।
तेरे बल रामराज किये सब सुरकाज, सकल समाज साज साजे रघुबर के।।

 

तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत, सजल बिलोचन बिरंचि हरि हर के।
तुलसी के माथे पर हाथ फेरो कीसनाथ, देखिये न दास दुखी तोसो कनिगर के।।33।।


पालो तेरे टूक को परेहू चूक मूकिये न, कूर कौड़ी दूको हौं आपनी ओर हेरिये।
भोरानाथ भोरे ही सरोष होत थोरे दोष, पोषि तोषि थापि आपनी न अवडेरिये।।

 

अँबु तू हौं अँबुचर, अँबु तू हौं डिंभ सो न, बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये।
बालक बिकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि, तुलसी की बाँह पर लामी लूम फेरिये।।34।।




घेरि लियो रोगनि, कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं, बासर जलद घन घटा धुकि धाई है।
बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस, रोष बिनु दोष धूम-मूल मलिनाई है।।

 

करुनानिधान हनुमान महा बलवान, हेरि हँसि हाँकि फूँकि फौजैं ते उड़ाई है।
खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि, केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है।।35।।


सवैया
राम गुलाम तु ही हनुमान गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो।
पाल्यो हौं बाल ज्यों आखर दू पितु मातु सों मंगल मोद समूलो।।

 

बाँह की बेदन बाँह पगार पुकारत आरत आनँद भूलो।
श्री रघुबीर निवारिये पीर रहौं दरबार परो लटि लूलो।।36।।


घनाक्षरी
काल की करालता करम कठिनाई कीधौं, पाप के प्रभाव की सुभाय बाय बावरे।
बेदन कुभाँति सो सही न जाति राति दिन, सोई बाँह गही जो गही समीर डाबरे।।

 

लायो तरु तुलसी तिहारो सो निहारि बारि, सींचिये मलीन भो तयो है तिहुँ तावरे।
भूतनि की आपनी पराये की कृपा निधान, जानियत सबही की रीति राम रावरे।।37।।




पाँय पीर पेट पीर बाँह पीर मुँह पीर, जरजर सकल पीर मई है।
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह, मोहि पर दवरि दमानक सी दई है।।

 

हौं तो बिनु मोल के बिकानो बलि बारेही तें, ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है।
कुँभज के किंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि, हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है।।38।।




बाहुक-सुबाहु नीच लीचर-मरीच मिलि, मुँहपीर केतुजा कुरोग जातुधान हैं।
राम नाम जगजाप कियो चहों सानुराग, काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान हैं।।

 

सुमिरे सहाय राम लखन आखर दोऊ, जिनके समूह साके जागत जहान हैं।
तुलसी सँभारि ताड़का सँहारि भारि भट, बेधे बरगद से बनाइ बानवान हैं।।39।।




बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो, राम नाम लेत माँगि खात टूकटाक हौं।
परयो लोक-रीति में पुनीत प्रीति राम राय, मोह बस बैठो तोरि तरकि तराक हौं।।

 

खोटे-खोटे आचरन आचरत अपनायो, अंजनी कुमार सोध्यो रामपानि पाक हौं।
तुलसी गुसाँई भयो भोंडे दिन भूल गयो, ताको फल पावत निदान परिपाक हौं।।40।।




असन-बसन-हीन बिषम-बिषाद-लीन, देखि दीन दूबरो करै न हाय हाय को।
तुलसी अनाथ सो सनाथ रघुनाथ कियो, दियो फल सील सिंधु आपने सुभाय को।।

 

नीच यहि बीच पति पाइ भरु हाईगो, बिहाइ प्रभु भजन बचन मन काय को।
ता तें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस, फूटि फूटि निकसत लोन राम राय को।।41।।




जीओं जग जानकी जीवन को कहाइ जन, मरिबे को बारानसी बारि सुरसरि को।
तुलसी के दुहूँ हाथ मोदक हैं ऐसे ठाँउ, जाके जिये मुये सोच करिहैं न लरि को।।

 

मोको झूटो साँचो लोग राम को कहत सब, मेरे मन मान है न हर को न हरि को।
भारी पीर दुसह सरीर तें बिहाल होत, सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करि को।।42।।




सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित, हित उपदेश को महेस मानो गुरु कै।
मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय, तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुर कै।।

 

ब्याधि भूत जनित उपाधि काहु खल की, समाधि कीजे तुलसी को जानि जन फुर कै।
कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ, रोग सिंधु क्यों न डारियत गाय खुर कै।।43।।


कहों हनुमान सों सुजान राम राय सों, कृपानिधान संकर सों सावधान सुनिये।
हरष विषाद राग रोष गुन दोष मई, बिरची बिरञ्ची सब देखियत दुनिये।।

 

माया जीव काल के करम के सुभाय के, करैया राम बेद कहैं साँची मन गुनिये।
तुम्ह तें कहा न होय हा हा सो बुझैये मोहि, हौं हूँ रहों मौनही बयो सो जानि लुनिये।।44।।

रविवार, 20 अप्रैल 2025

छत्रपति शिवाजी महाराज का जीवन

अप्रैल 20, 2025 0

 छत्रपति शिवाजी महाराज: एक महान योद्धा और                            राष्ट्र निर्माता

1. प्रस्तावना

छत्रपति शिवाजी महाराज का नाम भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है। वे एक महान योद्धा, दूरदर्शी नेता, और महान राष्ट्र निर्माता थे। उनका जीवन वीरता, रणनीतिक कौशल, और समर्पण से भरा हुआ था। 1630 में जन्मे शिवाजी महाराज ने भारतीय उपमहाद्वीप में एक नया राजनीतिक और सामाजिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उनके संघर्ष और विजयों ने न केवल महाराष्ट्र बल्कि समूचे भारत को स्वतंत्रता की दिशा में एक नया मार्ग दिखाया।

2. शिवाजी का जन्म और प्रारंभिक जीवन

छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी 1630 को पुणे जिले के शिवनेरी किले में हुआ था। वे शाहजी भोसले और Jijabai के पुत्र थे। उनका नाम पहले "शिवाजी" रखा गया, और बाद में उन्हें "छत्रपति" का सम्मान मिला, जो उन्हें राज्य और प्रजा के प्रति अपनी निष्ठा और नेतृत्व के कारण मिला।

शिवाजी के बचपन में ही उनके माता-पिता ने उन्हें सैन्य और शासकीय मामलों की शिक्षा दी। उनकी मां जीजाबाई ने उन्हें रामायण, महाभारत और मराठा इतिहास की कहानियाँ सुनाई, जिससे उनका मानसिक और आध्यात्मिक विकास हुआ।

3. शिवाजी का सैन्य कौशल और राज्य निर्माण

शिवाजी महाराज का सैन्य कौशल और रणनीतिक दृष्टिकोण अद्वितीय था। उनके पास हर समस्या का समाधान खोजने की क्षमता थी। उन्होंने अपने प्रारंभिक जीवन में कई किलों पर कब्जा किया। 1645 में, जब वे 15 वर्ष के थे, उन्होंने पुणे के पास Torna किले पर कब्जा किया, जो उनके पहले सैन्य विजय का प्रतीक था। इसके बाद, उन्होंने कई किलों पर विजय प्राप्त की और धीरे-धीरे एक स्वतंत्र मराठा राज्य की नींव रखी।

शिवाजी ने अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत करने के लिए आधुनिक युद्ध पद्धतियों का उपयोग किया। उन्होंने घेराबंदी युद्ध, लघु सैन्य अभियान और गुप्त रणनीतियों का इस्तेमाल किया। इसके साथ ही, उन्होंने एक सशक्त नौसेना भी बनाई, जिससे वे समुद्र के रास्ते से भी अपने राज्य को सुरक्षित रख सके।

4. राजनीतिक दृष्टिकोण और प्रशासन

शिवाजी के प्रशासनिक दृष्टिकोण में कई महत्वपूर्ण पहलुओं थे। उन्होंने अपने राज्य में न्याय, समानता और धार्मिक सहिष्णुता की नींव रखी। उनका आदर्श शासन "सर्वजन हिताय" (सबके लिए कल्याण) था। शिवाजी ने अपने राज्य में एक मजबूत और सुसंगत प्रशासन प्रणाली स्थापित की। उन्होंने एक सशक्त मत्रीमंडल और प्रशासनिक प्रणाली बनाई, जिसमें राजस्व, सुरक्षा, और जनता के कल्याण के लिए विशेष ध्यान दिया गया।

उनके द्वारा स्थापित "अदालतों" (कोर्ट्स) ने न्याय को सही और त्वरित तरीके से प्रदान किया। साथ ही, उन्होंने किसानों, व्यापारियों, और अन्य वर्गों के लिए कई कल्याणकारी योजनाएं बनाई। शिवाजी महाराज ने अपने शासन में राज्य के हर नागरिक को एक समान दर्जा दिया, बिना किसी जाति या धर्म के भेदभाव के। वे हमेशा धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर थे और इस बात का उदाहरण उनकी नीति में देखा जा सकता है, जिसमें उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों दोनों को समान अधिकार दिए।

5. आधुनिक युद्ध कौशल और नौसेना

शिवाजी महाराज के युद्ध कौशल को अद्वितीय माना जाता है। वे एक महान रणनीतिकार थे, और उन्होंने छापामार युद्धों (Guerrilla Warfare) की तकनीकों को अपनाया। ये युद्धकला की एक ऐसी शैली थी, जो छोटे और तेज हमलों पर आधारित थी। इस प्रकार की युद्धकला ने उन्हें शत्रु की बड़ी सेनाओं के खिलाफ भी जीत दिलाई।

शिवाजी ने एक मजबूत नौसेना भी तैयार की, जो समुद्र से राज्य की सुरक्षा करने के साथ-साथ व्यापार मार्गों की भी रक्षा करती थी। कोंकण तट पर अपनी नौसेना को स्थापित कर, उन्होंने समुद्र के रास्ते से आने वाले आक्रमणकारियों से अपनी रक्षा की।

6. संघर्ष और विजय

शिवाजी के जीवन में कई संघर्ष थे, जिनमें सबसे प्रमुख था उनकी मुठभेड़ दिल्ली के मुगलों और उनके शासक औरंगजेब से। 1660 में, औरंगजेब ने शिवाजी के खिलाफ आक्रमण की योजना बनाई। लेकिन शिवाजी ने अपनी रणनीति से औरंगजेब की सेना को कई बार हराया। सबसे प्रसिद्ध घटना 1666 की है, जब शिवाजी औरंगजेब की अदालत में गए थे और वहां से अपनी सूझबूझ से भाग निकले।

7. कावेरी नदी से लेकर जंजिरा किला तक

शिवाजी के साम्राज्य की सीमाएं केवल भूमि तक सीमित नहीं थीं, बल्कि समुद्र के किनारे भी उनकी पकड़ मजबूत थी। कावेरी नदी से लेकर जंजिरा किले तक उनका साम्राज्य फैला हुआ था। उनके द्वारा स्थापित नौसेना ने समुद्र के रास्ते से होने वाले हमलों का मुकाबला किया।

8. शिवाजी का राजमहल और किलों की संरचना

शिवाजी महाराज ने कई किलों का निर्माण किया और उनकी मराठा साम्राज्य में विशेष महत्व था। इनमें से कुछ किले जैसे रायगढ़, सिंधुदुर्ग, और पुरंदर किला आज भी महाराष्ट्र की धरोहर के रूप में प्रतिष्ठित हैं। शिवाजी ने इन किलों को न केवल युद्धकला के प्रतीक के रूप में बनाया, बल्कि इन्होंने अपने साम्राज्य की सुरक्षा भी सुनिश्चित की।

9. शिवाजी की मृत्यु और विरासत

छत्रपति शिवाजी महाराज का निधन 3 अप्रैल 1680 को हुआ। उनका निधन मराठा साम्राज्य के लिए एक बड़ी क्षति थी, लेकिन उनकी विरासत हमेशा जीवित रही। उनका राज्य उनकी मृत्यु के बाद भी बहुत समय तक समृद्ध रहा, और उनकी नीतियों और कार्यों ने मराठा साम्राज्य को समृद्धि की दिशा में मार्गदर्शन किया।

निष्कर्ष

छत्रपति शिवाजी महाराज केवल एक महान योद्धा नहीं थे, बल्कि वे एक दूरदर्शी नेता और शासक भी थे। उन्होंने अपने जीवन में जो कार्य किए, वे न केवल उनकी वीरता और साहस का प्रतीक हैं, बल्कि वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले चरण की नींव भी मानी जा सकती हैं। उनका संघर्ष, नेतृत्व और प्रशासन आज भी भारतीय राजनीति और समाज में महत्वपूर्ण हैं। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि स्वतंत्रता, न्याय, और समानता के लिए संघर्ष करना और अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान रहना, सबसे महत्वपूर्ण है।

इतिहास में उनका स्थान

छत्रपति शिवाजी महाराज का नाम भारतीय इतिहास में हमेशा उच्च सम्मान से लिया जाएगा। उनकी वीरता, साहस, और दूरदर्शिता उन्हें एक ऐतिहासिक महापुरुष के रूप में जीवित रखेगी, जो हमेशा हमारे दिलों में रहेंगे।

गौतम बुद्ध: अज्ञान से बोध तक की यात्रा

अप्रैल 20, 2025 0

गौतम बुद्ध (563 ई.पू. – 483 ई.पू.) : अज्ञान से बोध तक की यात्रा

1. राजकुमार सिद्धार्थ का जन्म

लगभग ढाई हजार साल पहले, नेपाल के लुंबिनी नामक स्थान पर शाक्य वंश के राजा शुद्धोधन और रानी माया देवी के यहाँ एक पुत्र का जन्म हुआ। उनका नाम रखा गया सिद्धार्थ। जन्म के समय ही ऋषियों ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक या तो महान सम्राट बनेगा या महान संन्यासी।राजा ने यह सुनकर सिद्धार्थ को महल में ही सुख-सुविधाओं से घेर कर रखा। उन्हें कभी संसार का दुःख देखने नहीं दिया गया। परंतु सत्य को अधिक समय तक छुपाया नहीं जा सकता।

2. चार दर्शन और जीवन की करवट

एक दिन सिद्धार्थ अपने सारथी चन्ना के साथ नगर भ्रमण पर निकले। वहाँ उन्होंने चार अद्भुत दृश्य देखे:

  • एक बूढ़ा व्यक्ति
    एक रोगी
    एक मृत शरीर
    और एक संन्यासी

इन दृश्यों ने उनके मन को झकझोर दिया। उन्हें पहली बार समझ में आया कि जीवन में जन्म, रोग, बुढ़ापा और मृत्यु अपरिहार्य हैं। यह सब देखकर उनका मन संसार की मोह-माया से विरक्त हो गया।

3. गृहत्याग – महाभिनिष्क्रमण


एक रात सिद्धार्थ ने अपने सोते हुए पुत्र राहुल और पत्नी यशोधरा को बिना जगाए देख लिया। उन्होंने घोड़े कंथक पर सवार होकर महल छोड़ दिया। इस त्याग को “महाभिनिष्क्रमण” कहा जाता है – यानी आत्मज्ञान की खोज में गृहत्याग।

4. ज्ञान की खोज

सिद्धार्थ ने वर्षों तक विभिन्न गुरुओं से साधना की, तप किया, ध्यान किया। उन्होंने आत्म-त्याग के चरम को छू लिया, यहाँ तक कि उन्होंने अन्न-जल तक त्याग दिया। शरीर अत्यंत दुर्बल हो गया, परंतु आत्मज्ञान नहीं मिला।

तभी उन्हें समझ में आया कि अतिवाद – चाहे सुख का हो या दुख का – मुक्ति नहीं देता। उन्होंने एक नया मार्ग चुना – मध्यम मार्ग

5. बोधगया में आत्मज्ञान

एक दिन वे गया के पास पीपल के पेड़ के नीचे ध्यानमग्न हो गए। उन्होंने संकल्प लिया: "जब तक परम सत्य न जान लूँ, तब तक इस आसन को नहीं छोड़ूँगा।"

कई दिन और रात बीते। अंततः, वैशाख पूर्णिमा की रात उन्हें बोध प्राप्त हुआ। वे अब सिद्धार्थ नहीं, बल्कि बुद्ध बन चुके थे – अर्थात् "जाग्रत"।

वह पेड़ आज "बोधिवृक्ष" कहलाता है और स्थान है – बोधगया, बिहार में।

6. प्रथम उपदेश – धर्मचक्र प्रवर्तन

ज्ञान प्राप्ति के बाद बुद्ध सबसे पहले वाराणसी के पास सारनाथ पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपने पुराने पाँच साथियों को पहला उपदेश दिया। यह उपदेश था – धर्मचक्र प्रवर्तन

उन्होंने समझाया कि जीवन में दुःख क्यों है, उसका कारण क्या है, उससे कैसे मुक्ति मिले – जिसे उन्होंने चार आर्य सत्य के रूप में बताया:

चार आर्य सत्य:

  1. दुःख – जीवन दुःख से भरा है
    दुःख का कारण – तृष्णा (इच्छा)
    दुःख की निवृत्ति – इच्छा का क्षय
    मार्ग – अष्टांगिक मार्ग

7. अष्टांगिक मार्ग – मुक्ति का रास्ता

बुद्ध ने बताया कि दुःख से मुक्ति पाने के लिए हमें आठ बातों का पालन करना चाहिए:

  1. सम्यक दृष्टि – सही समझ

  2. सम्यक संकल्प – सही सोच

  3. सम्यक वाणी – सत्य और मधुर वचन

  4. सम्यक कर्म – अहिंसक और नैतिक आचरण

  5. सम्यक आजीविका – धर्मयुक्त जीवन-यापन

  6. सम्यक प्रयास – सत्कर्म की चेष्टा

  7. सम्यक स्मृति – जागरूकता

  8. सम्यक समाधि – ध्यान और एकाग्रता

8. बुद्ध का करुणा और अहिंसा का संदेश

गौतम बुद्ध ने किसी भी ईश्वर या कर्मकांड की आवश्यकता नहीं बताई। उनका धर्म था – प्रेम, करुणा और विवेक।

उन्होंने सिखाया कि:

  • सच्चा धर्म वही है जो मनुष्य को मुक्त करे।

  • क्रोध, ईर्ष्या, लोभ – यही नरक हैं।

  • दूसरों के दुःख को समझना ही करुणा है।

9. संघ और धर्म का प्रचार

बुद्ध ने एक भिक्षु-संघ की स्थापना की। उनके अनुयायी गाँव-गाँव, देश-देश जाकर बुद्ध का सादा, लेकिन गहरा संदेश फैलाते गए। भारत ही नहीं, श्रीलंका, बर्मा, चीन, जापान, तिब्बत – सब जगह बुद्ध की वाणी गूंजी।

उनकी शिक्षा थी –
"अप्प दीपो भव" – "स्वयं दीपक बनो।"

10. महापरिनिर्वाण

80 वर्ष की आयु में 483 ईसा पूर्व, कुशीनगर (उत्तर प्रदेश) में बुद्ध ने अपने जीवन का अंतिम उपदेश दिया और कहा:

"संघारामा अनिच्चा" – "सभी घटक नश्वर हैं। सावधानी से जीवन जियो।"

फिर वे चुपचाप ध्यान में लीन हो गए और महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए।


🌟 निष्कर्ष

गौतम बुद्ध का जीवन किसी चमत्कार से कम नहीं था। एक राजकुमार जिसने संसार का वैभव त्याग कर सत्य की खोज की, और पूरी मानवता को अज्ञान से बोध की ओर ले गया।

उनकी शिक्षाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं – जब भी मन अशांत हो, जब भी जीवन का रास्ता न दिखे – बुद्ध की ओर देखना कभी व्यर्थ नहीं जाता।रचयिता हो। अपने दीपक बनो।"

      बुद्धं शरणं गच्छामिधम्मं शरणं गच्छामिसंघं शरणं गच्छामि का बहुत विशेष महत्व है। 

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